Tuesday, December 21, 2010

चालिस के बाद..... !

चालिस के बाद इंसान को अगर ज़्यादा दिनों तक इस दुनिया में ज़िन्दा रहना है तो उसे अपनी शक्ति को सुरक्षित रख्नना चाहिये. एक दार्शनिक ने लिखा है कि चालिस के बाद इंसान खड़ा क्यों हो अगर वह बैठ सकता है, और बैठे क्यों अगर वह लेट सकता है.मुझे उसकी यह बात पसंद आयी. अब मैं अपना अधिकतर समय लेटे लेटे बिताती हूं. चालिस की आयु के बाद मैंने स्वास्थ्य ठीक रख्ने के लिये कुछ उपाय किये हैं जो आज आप को बताना चाहती हूं. इस उम्र के बाद स्वास्थ्य पर विषेश ध्यान ज़रूरी है नहीं तो हार्ट अटैक, ब्लड प्रेशर, शुगर जैसी बीमारियां घेर लेती हैं.

मैं बचपन से बडी खिलन्डरी और चंचल रही हूं लेकिन अब चलना फिरना कम कर दिया है. शापिंग नौकर से करवाती हूं या फिर इन्हें भेज देती हूं. खाद्य पदार्थों में मिलावट के कारण अब हड्डियों में वह जान नहीं रही जो पहले हुआ करती थी. आस्टियोपोरोसिस की वजह से हड्डियां कमज़ोर होकर जल्दी टूट जाती हैं.

इस उम्र में यात्रा तो बिलकुल भी नहीं करनी चाहिये. अखबारों में दुर्घटनाओं के समाचार पढ़कर जान निकल जाती है:

घोड़ा गाडी गधे से टकरा गई, एक मरा दस घायल.

ट्रेन पटरी से उतरी कोई घायल नहीं हुआ.

एक दुर्घटना ही क्या आदमी की जान लेने के सैंकडों बहाने हैं. भीड़ भाड़ वाले स्थान पर बम फट गया, घर में गैस स्लिन्डर फट गया, बाथरूम में फिसल पडे, बस में बिजली का करंट दौड़ गया. इसी बहाने पब्लिक कम हो रही है और नाम परिवार नियोजन का हो रहा है.

कल मेरे पास कुछ सोशल वर्कर आये थे. जब मैं कालेज में थी तो सोशल वर्क मेरी विषेश रूचि थी. लोगों की बडी सेवा की लेकिन अब सब छोड़ दिया है. वह लोग स्कूल के गरीब बच्चों के लिये चंदा मांगने आये थे. मुझे भी इस अभियान में साथ लेजाना चाहते थे. मैने पूछा वह स्कूल कैसा है, वहां बच्चों को क्या पढाया जाता है ? यह सुनकर वे सब खी खी कर हंसने लगे. उनमें से जो सबसे बडी उम्र का था बराम्दे में खैनी की बदबूदार पिचकारी मार कर बोला "मैडम हम देश भक्ति की शिक्षा देते हैं. बच्चों को वंदे मात्‍रम् कहना सिखाते हैं.यही हमारा धर्म है, यही हमारा कर्म है."

मैंने कहा " अंग्रेज़ बिना वंदे मात्‍रम् कहे आधी दुनिया पर शासन कर गये. अमेरिका बिना वंदे मात्‍रम् के सारी दुनिया का चौधरी बना हुआ है. नये दौर में आप पीछे की ओर क्यों लौट रहे हैं ?"

उसने कहा "मैडम हमारे लिये तो दौर एक सा है, आपके लिये शायद बदल गया होगा. हम तो कल भी सेवक थे, आज भी सेवक हैं."

मैंने कहा "मैं आपके साथ नहीं चल सकती. मैं चालिस से ऊपर की हो चुकी हूं. उसने कहा "तो क्या हुआ ? मैं पचास साल का हूं, यह हमारे गुरू जी सत्तर साल के हैं. अब भी जवानों को लाठी चलाना सिखाते हैं. जब यह भाला घुमाते हैं तो जवान भी इनके सामने टिक नहीं पाते."

मैंने कहा "ज़रूर आपका ब्लड प्रेशर बढ़ गया होगा, पेशाब में शकर आती होगी. ब्लड में कोलेस्ट्राल खतरे के निशान को पार कर गया होगा...."

बोला "ऐसा तो नहीं है."

मैंने कहा "चेकअप क्रराइए तो पता चलेगा."

कहने लगा "चेकअप कराने से क्या फायदा ? जब तक जान है देश सेवा में लगा दूं. शरीर तो एक दिन नष्‍ट हो जायेगा."

मैंने कहा "यह शरीर आपको इसलिये नहीं दिया गया है कि आप इसे ज़बर्दस्ती नष्‍ट करदें. यह जीना भी कोई जीना है कि घुटनों का दर्द परेशान करता हो, गुर्दे में पथरी हो, दिल का दौरा पड़ने का धड़का हर समय लगा रहता हो....."

वह बोला "आप इतनी मोटी क्यों हैं. आप को दिल का दौरा पड़ सकता है. अगर आप ऐसे ही मोटी होती रहीं तो आप की हड्डियां शरीर का बोझ संभाल नहीं सकेंगी और टूट जाएंगी. आप योग करने लगें बडा फायदा होगा."

वे लोग यह कहकर चले गये. मैंने उनकी बातों पर फिर से विचार किया. शाम को जब मैं बिस्तर से उठने लगी तो मुझे पैर की हड्डी चरमराती हुई सी लगी........शायद वह टूट ही जाती, अगर मैं बिस्तर पर जल्दी से लेट न जाती...... उसने सच कहा था !

अब मैं योग करने के बारे में सोच रही हूं. मैंने योग पर एक अच्छी किताब मंगवा ली है और लेटे लेटे उसे पढ़ डाला है. योग के आसन भी इतने कठिन हैं कि उनके करने से अच्छे भले आदमी से पेट में बल पड़ जाएंगे या फिर हड्डियां दोहरी होकर टूट जाएंगी. योग के फायदे देखते हुए मैं यह सब कठिनाइयां भी उठाऊंगी. मुझे योग का सबसे अच्छा आसन शव-आसन लगा वही करने के बारे में सोच रही हूं.....!

Monday, November 22, 2010

व्यस्तता

(1)

रात की तनहाई में
अपने ही मोबाइल पर
अपना नम्बर डायल करता हूं
आवाज़ आती है
"डायल किया गया नम्बर व्यस्त है,
थोड़ी देर बाद डायल करें"
मैं सोचता हूं
मेरे मोबाइल पर
इतनी रात गये
कौन बातें करता है ?

(2)

टेलीफ़ोन खराब है
रिंग करने वाले को
फ़ाल्स बेल सुनाई पड़ती है
वह सोचता है
कोई उठाता क्यों नहीं है
शायद व्यस्त है !

(3)

आप वयस्त हैं
काम से उकताये हुए हैं
बास पर झल्लाये हुए हैं
आफ़िस के बाहर
रेड लाइट है
चपरासी को सख्त हिदायत है
कोई अन्दर न आने पाये
अचानक !
टेलीफ़ोन की घन्टी बजती है
आप फ़ोन उठाते हैं
और ज़्यादा व्यस्त हो जाते हैं

Friday, November 12, 2010

धरती के लाल याद है तुम्हें ?

धरती के लाल !
याद है तुम्हें ?
हलागू और चंगेज़
सिकन्दर की उमड़ती फ़ौजें
तातारी बेलगाम घोड़े
मंगोलों के हमले
जिन्होंने सभ्याताऒं की
ईंट से ईंट बजा दी.

दिल्ली लुटी कई बार
कभी नादिर शाही कत्ले आम
कभी तैमूर की चढ़ाई
मराठों के हमले
गोरों की हुकूमत
1857 की क्रान्ति
दिल्ली की घेराबन्दी
आखरी मुग़ल का खात्मा

पहला विश्‍व युद्ध
बमों की बरसात
दूसरा विश्‍व युद्ध
हीरोशिमा और नागासाकी
फिर उठे मानवता के ठेकेदार
अब जंग न होने देंगे
इन्सानियत को बेवजह
शर्मसार न होने देंगे

दुनिया दो शक्‍तियों के घेरे में
अमेरिका और रूस
शीत युद्ध, जासूसी, प्रोपेगन्डा
रूस का बिखराव
दुनिया एक शक्‍ति की मुठ्ठी में
काले नकाब पोश चेहरे
आतंकवाद का साया
ट्विन टावर की तबाही

बिखरती मानवता की परछाईं
अफ़गानिस्तान के घाव
कैमिकत हथयारों की खोज
इराक़ का बिखराव
भूख से बिलखते बच्चे
मानवता का उपहास
ग्वान्टेनामो की कहानी
टार्चर का नया इतिहास

धरती के लाल
इन सबसे बेपरवाह
तुम अपने काम में लगे रहे
कारखानों में मशीनों पर
खेतों में, सडकों पर
तुम्हारे दो हाथ ही काम आते हैं
दुनिया को रोटी ही नहीं देते
इसे खूबसूरत भी बनाते हैं

धरती के लाल
हर बार तुम्हीं निशाना बने
ज़ुल्म करने वाले
हलागू या चंगेज़ हों
य़ा हिटलर और मसोलिनी
लाल सिपाही
मानवता के ठेकेदार
या बे चेहरा शक्‍तियां

कभी आतंकवाद के नाम पर
क्भी इन्सानियत के नाम पर
तुम्हीं क्यों पीसे जाते हो ?
धरती के लाल ??

Tuesday, November 2, 2010

न रहेगा आम, न कूकेगी कोयल

चच्चा बोले नवाब खशखशी के पास ग्रामोफ़ोन था जिस में रिकार्ड लगाकर वह गाने सुना करते थे.

नवाब खशखशी पुराने गानों के शौक़ीन थे. जब गाना सुनने बैठते थे क्या मजाल जो कोई ज़रा भी डिस्टर्ब कर दे. एक दिन बाग़ मे बैठे उस्ताद विलायत खां से पक्का गाना सुन रहे थे कि कोयल ने कूक मारी. उस्ताद विलायत खां पर उसका ऐसा असर हुआ कि गाना बन्द कर दिया और नवाब साहब से हाथ जोडकर कहा कि अब मुझ से नहीं गाया जायेगा.

नवाब ने पूछा क्यों ?

उस्ताद बोले कोयल की आवाज़ सुनकर मेरा गला रुन्ध गया है. एक पुरानी कहानी याद आ गयी है, एक कसक सी सीने में उठी है और एक आग है कि दिल को जला रही है.

नवाब के चेहरे पर कई रंग आये और गये. गुस्से से कांपने लगे. जब कांप चुके तो हांफने लगे. बोले एक ज़रा से परिन्दे की यह मजाल कि उस्ताद विलायत खां को पक्का गाना गाने से रोक दे. फ़ौरन बहेलिये को बुलवाया और कोयल को पकड़वा दिया. कुछ दिन बाद जब नवाब साहब को खबर मिली कि आम के बाग़ में कोयलों ने शोर मचा रक्खा है तो बाग़ कटवा कर बबूल का जंगल लगवा दिया कि न रहेगा आम, न कूकेगी कोयल !

चच्चा बोले वह दिन अब कहां. नवाब खशखशी चले गये उनके पोते अब चूना बेचते हैं और मोबाइल से गाने सुनते हैं. कल मैं टी वी देख रहा था. अच्छा प्रोग्राम चल रहा था लेकिन बीच बीच में सिलसिला टूट जाता था. साबुन, चाय, तेल, बेचने वाले, बिना भूख पिज़्ज़ा बर्गर खाने की सलाह देने वाले बिन बुलाये मेहमान की तरह घर में घुस पड़ते थे. यह सब देखकर मेरा ब्लड प्रेशर बढ़ने लगा. मैंने सोचा न हुये नवाब साहब... तोड़ देते टी वी और फोड़ देते ऊपर लगी छतरी.....

कमाल की बात है, हम अपना पैसा दें. डिश वालों की जेबें भरें और ऊपर से अनचाहे एडवर्टाइज़मेन्ट झेलें. यह तो वही बात हुई कि हमारी बिल्ली हमीं से मियाऊं. टी वी वालों ने अच्छा धंधा चलाया है. अब बहुत हो चुका या तो हमें फ़्री टी वी दिखओ हम प्रोग्राम के साथ एड भी पचा जाएंगे और डकार भी नहीं लेंगे. पेड चैनल में एड नहीं होना चाहिए.

दिन भर के थके हारे, टेंशन से चूर, ब्लड प्रेशर के मरीज़, ज़माने के सताये हुए रात को जब टी वी का सहारा लें कोई अच्छा प्रोग्राम देखना चाहें तो आप हमें कड़वी दवा की तरह धकाधक एड पर एड पिलाने लगें !

यह क्या बात हुई ? चच्चा मुझसे सवाल पूछ रहे थे.

मैने कहा पहले टी वी फ़्री दिखाया जाता था. चैनल अपना खर्च और मुनाफ़ा एड से पूरा करते थे. जब टी वी कमर्शियालाइज़ हुआ, चैनल्ज़ का बुके बनाकर ग्राहक से पैसा लेना शुरू किया तो एड भी साथ ही चलने लगे जैसे फ़्री टी वी में चलते थे. टी वी के ग्राहकों ने कभी नहीं सोचा कि जब हम पैसा दे रहे हैं तो एड क्यों देखें.

यह सुनकर चच्चा गहरी सोच में डूब गये.

Friday, October 22, 2010

डाक्टर यूसुफ़ गौहर


डाक्टर यूसुफ़ गौहर शाहजहांपुरी, शायर, कहानीकार और एक कामयाब पत्रकार हैं. पिछले दो वर्ष से वह उर्दू मैगज़ीन उफ़क़े नौ निकाल रहे हैं. यह पत्रिका बेहद पसंद की जा रही है. 12 अप्रैल 1939 ई. में आपने शाहजहांपुर के एक मध्यमवर्गीय घराने में आंखे खोलीं. घर का; माहौल शुरू से ही साहित्यिक था. बड़े भाई अज़हर अली खां जौहर अच्छे शायर और दिल साहब के शागिर्दों में थे.


डाक्टर यूसुफ़ गौहर ने 1951-52 में साहित्यिक दुनिया में क़दम रखा. पहले कहानियां लिख्नना शुरू कीं. फिर शायरी की तरफ़ रुझान हो गया. देश के साहित्यिक पत्र पत्रिकाओं में उनकी कहानियां और ग़ज़लें छप रही हैं. उनकी शायरी दिल की आवाज़ है. वह समाज की बुराइयों पर गहरी चोट करते हैं. शेर हमेशा सोच समझकर कहते हैं. उनकी कवितायें बहुत पसन्द की गयी हैं.


क्लर्की करके पछताये


क्लर्की करके पछताये,क्लर्की करके पछताये
बड़ा धोका हुआ हमसे जो इस पेशे में हम आये


इधर अफ़सर भी हैं नाराज़ क्यों यह काम बाक़ी है
उधर मज़दूर कह्ते हैं कि यह बाबू मिराक़ी है
कोई किस किस को समझाये, कोई किस किस को बहलाये
क्लर्की करके पछताये


अभी तारीख़ है पन्द्र्ह मगर यह जेब खाली है
उधर बीवी का यह आलम कि पैसों की सवाली है
नहीं मुमकिन सुकूं से अब जो कोई दिन भी कट पाये
क्लर्की करके पछताये


यह बीवी का अब आर्डर है न डेली शेव बनवायें
बचाकर इस तरह पैसे उसे साड़ी पहनवायें
उसे क्या ग़म हमारा शेव घुटनों तक जो बढ़ जाये
क्लर्की करके पछताये


अगर दस साल पहले हम किसी बिज़नेस में पड़ जाते
न होती पास कौड़ी भी मगर हम सेठ कहलाते
निकलती तोंद अपनी भी न फिरते पेट पिचकाये
क्लर्की करके पछताये


यह सोचा था कि बी.ए. करके एल. एल.बी. करेंगे हम
विलायत जाके फिर कानून का पुतला बनेंगे हम
करें क्या हम अगर गौहर अचानक बाप मर जाये
क्लर्की करके पछताये


मेरे सीने में भी कुछ वक़्त के नश्तर लोगो
फिर हुआ जाता हूं मैं मोम से पत्थर लोगो


मेरा क़ातिल तो मुझी में है निहां दूर नहीं
तुम अबस ढूंढ रहे हो उसे घर घर लोगो


शहर का शहर मेरे क़्त्ल पे आमादा है
मैं तो शर्मिन्दा हूं आईना दिखाकर लोगो


अपने मक़सद के लिये झूठ रवा, ज़ुल्म रवा
और अपने को समझते हो पयम्बर लोगो


जाने क्या क्या न मेरे बारे में सोचा होगा
रास्ता आज भी उसने मेरा देखा होगा


मोर सोने का खरीदेंगे किसी के बच्चे
दस्ते अफ़्लास में मिट्टी का खिलौना होगा

Sunday, October 10, 2010

मुबारक शमीम की शायरी


मुबारक शमीम की लिखी किताबों में उनके चार कविता संकलन और एक शाहजहांपुर के उर्दु फारसी शायरों का इतिहास है. यह किताब सुखनवराने शाहजहांपुर के नाम से विख्यात हुई.कविता संकलन की किताबों के नाम - नक्शे नवा, आबो हवा, सवादे जां, पतझड के फूल हैं. लतीफ रशीदी के साथ हिन्दी में गैर मुस्लिम शोअराए शाहजहांपुर के नाम से किताब लिखी. इस किताब में शाहजहांपुर के संछिप्त इतिहास के साथ गैर मुस्लिम शायरों का कलाम और जीवन परिचय दिया गया है.
मुबारक शमीम का जन्म 1924 में हुआ था.26 सितम्बर 2007 ई. को वह इस संसार से रुख्सत हुए. उन्हों ने अपना सारा जीवन साहित्य की सेवा और खोज में गुज़ारा.सुखनवराने शाहजहांपुर के रूप में शाहजहांपुर का लगभग 350 वर्ष का इतिहास लिखना उन्हीं का कारनामा है. इसके लिये उन्हें एक अच्छे इतिहासकार के रूप में भी जाना जायेगा.


ग़ज़ल

सोज़े एह्सास सिवा चाहते हैं
सिर्फ इतनी सी दुआ चाहते हैं

ज़िन्दगी बख्श फ़िज़ा चाहते हैं
कोई मौसम हो हवा चाहते हैं

रास्तों को भी मुसाफिर समझो
ये भी एक राहनुमा चाहते हैं

देख लें तू कोई पत्थर तो नहीं
एक ज़रा तुझको छुआ चाहते हैं

मशअलें लेके बहुत भटके हम
अब अंधेरों में रहा चाहते हैं

गुमरही उनसे कहें क्या जो लोग
हमसे मंज़िल का पता चाहते हैं

आज के दौर में लोगों से शमीम
हम से नादान वफा चाहते हैं

Tuesday, October 5, 2010

अग्निवेष शुक्ल की गज़लें

रात के पिछ्ले पहर

बेखुदी ने साथ छोडा रात के पिछ्ले पहर
दर्द ने फिर आ झंझोडा रात के पिछ्ले पहर

नर्म एह्सासों की नंगी पीठ घायल हो गयी
यूं चला यादों का कोडा रात के पिछ्ले पहर

फिर तसव्वुर के चमन में खिल उठा बेसाख्ता
नर्गिसी आंखों का जोडा रात के पिछ्ले पहर

बेबसी से हमने अक्सर ज़िन्दगी की रेत को
कोरे पन्नों पर निचोडा रात के पिछ्ले पहर

सुबह से ता शाम हमने मौत की किस्तें भरीं
मर गये बस और थोडा रात के पिछ्ले पहर

सोचने बैठे तो हमने अपने होने का भरम
जाने कितनी बार तोडा रात के पिछ्ले पहर

फूल, खुश्बू, चांद, मयखाना
फूल, खुश्बू, चांद, मयखाना गज़ल में आ गया
एक तेरे ज़िक्र से क्या क्या गज़ल में आ गया

कर रहा था मैं तो अपनी ज़िन्दगी का तजज़िया
दूर तक फैला हुआ सहरा गज़ल में आ गया

कद परिन्दे का बढा तो घर बदलना ही पडा
दर्द मेरे दिल से यूं निकला गज़ल में आ गया

आज फिर पत्थर हुईं एह्सास की शहनाइयां
आज फिर लफ्ज़ों का सन्नटा गज़ल में आ गया

मेरे कम्ररे की खुली खिडकी से आकर चांद ने
रात भर जो नूर बरसाया गज़ल में आ गया

छुप के रोना ज़रूरी था
छुप के रोना ज़रूरी था मेरे लिये
घर का कोना ज़रूरी था मेरे लिये

मेरा अन्जाम ही मेरा आगाज़ था
कत्ल होना ज़रूरी था मेरे लिये

खुद को पाने का कोई ज़रिया न था
खुद को खोना ज़रूरी था मेरे लिये

चंद रिश्ते मेरी रूह पर बोझ थे
जिनको ढोना ज़रूरी था मेरे लिये

तेरा दामन नहीं तो येह सहरा सही
कुछ भिगोना ज़रूरी था मेरे लिये

कोई वादा था मुझसे किसी ख्वाब का
रात सोना ज़रूरी था मेरे लिये




उपरोक्त गज़लें अग्निवेष शुक्ल की हैं. अग्निवेष शुक्ल की गिन्ती शाह्जहांपुर के बडे शायरों में होती है. वह एक ऐसे कवि थे जिनकी ज़ुबान पर एहसास बोलता था, अल्फ़ाज़ उनकी वाणी से दर्द बनकर फूट पड़ते थे. ज़िन्दगी की हकीकतों को उन्होंने बखूबी समझा है और शेरों के खूबसूरत सांचे में ढाला है. अफ़सोस उनकी ज़िन्दगी ने ज़्यादा साथ नहीं निभाया. 8 जून 2003 ई. को 50 वर्ष की उम्र में उन्होंने इस संसार को अल्विदा कहा. उनका कलाम हिन्दी - उर्दू में ’रात के पिछ्ले पहर’ के नाम से उनकी मॄत्यू के बाद प्रकाशित हुआ.

Saturday, October 2, 2010

चच्चा चंगू के क़िस्से

चच्चा चंगू का जन्म कब हुआ इस बारे में इतिहास के पन्नों में कुछ नहीं मिलता. चच्चा को भी नहीं पता. केवल इतना बताते हैं कि यह घटना कोई 1925-30 के आस पास की है जब चच्चा ने इस दुनिया में पहली चीख मारी. जब से वह बराबर चीख चिल्ला रहे हैं.चच्चा बताते हैं कि भारत की आज़ादी के समय वह नौजवान थे. आज़ादी के लिये होने वाले जलसे जलूसों में भाग लेते थे. लाठियां खाने की हिम्मत नहीं थी इस्लिये राजनीति से दूर ही रहे. उन्होंने एक ज़माना देखा है. बातें बनाना खूब जानते हैं पुराने किस्से चटखारे लेकर सुनाते हैं.


चच्चा की आदत है बोलना और बोलते रहना. कोई सुने न सुने उनका काम है सुनाना. जब बोलते हैं तो दूसरे को मौका नहीं देते. उनका आउट लूक ज़रा पुराना है. कभी कभी लोग नाराज़ भी हो जाते हैं कि क्या फ़ाल्तू बक बक करते हो लेकिन चच्चा आदत से मजबूर हैं. ज़रा सुनिए चच्चा क्या कह्ते हैं:


एक लकड़ी पुरानी सी


एक दिन चच्चा को पुरानी यादों की धुन सवार थी बोले: लार्ड पापकार्न का सोंटा भी क्या सोंटा था. पता नहीं यह सोंटा लार्ड पापकार्न को कहां से मिला था. हो सकता है कि बाज़नतीनी अफ़सरों से हाथ लगा हो जो 1453 में कुस्तुनतुनिया के पतन के बाद लंदन में बस गये थे.


मैंने चच्चा से पूछा कि लार्ड पापकार्न भारत के कौथे लार्ड थे? (किस लार्ड के पहले या बाद उनका नाम आता है) तो चच्चा ने साफ़ कह दिया कि पता नहीं. बोले मैं कोई इतिहासकार तो हूं नहीं. मैं तुम्हें आंखों देखी और कानों सुनी सुनाता हूं और तुम हो कि इतिहास के पन्ने पलटने बैठ जाते हो. मैंने लार्ड पापकार्न को खुद देखा है. बहुत लम्बे से थे. गोरा लाल रंग, पतला लम्बा चेहरा, मूंछें साफ़ और हाथ में एक बडा सा सोंटा.


लार्ड पापकार्न के कुछ बडे लोगों से अच्छे ताल्लुकात थे जैसे नवाब खशखशी, मशहूर बैरिस्टर टी.टी. बोरीवाला और उस ज़माने के बार बार मार खाने और जेल जाने वाले नेता गोलू धरपकड. लार्ड पापकार्न इन सभी की बडी इज़्ज़त करते थे. एक बार चच्चा नेता जी के साथ जो ताज़े ताज़े जेल से छूटे थे लार्ड से मिलने गये. गेट पर सन्त्री ने रोका तो नेता जी ने कहा - कह दो लार्ड साहब से जाकर कि नेता जी गोलू धरपकड आये हैं जो कल ही आप के हुक्म से जेल से रिहा हुए हैं.


सन्त्री लार्ड को बताने के लिये गेट छोडकर आगे बढा और नेता जी पीछे चले. उनके पीछे अपने चच्चा थे. सन्त्री ने एक बार घूर कर नेता जी को देखा लेकिन नेता जी ने परवाह नहीं की. अभी वह लार्ड के बंगले में सामने बरामदे तक पहुंच पाये होंगे कि जाने कहां से चार पांच मोटे मोटे डंडाधारी सिपाही निकल पडे और लगे नेता जी को लठियाने. चच्चा पीछे थे वह तो कूदकर गेट के बाहर हुए. नेता जी फ़ाल्तू पिट गये.


मार धाड की आवाज़ सुनकर लार्ड ने बंगले की खिडकी में से झांका. एक निहत्ते आदमी पर यह आत्याचार देखकर वह बेचैन हो गया. उसने सिपाहियों को डांटकर नेता जी को बचाया. नेता जी चोटें सहलाते और धूल झाड़्ते हुए उठकर खड़े हुए. नेता जी की बात सुनकर उसने एक स्लिप लिखकर दी कि जब मिलना हो यह स्लिप सन्त्री को देकर बाहर इन्तिज़ार करो.


नेता जी भी धुन के पक्के थे. फ़ौरन घर आये. चोटों और धूल को साफ़ किय. पुराना इस्त्री किय हुआ कुर्ता पाजामा पहन कर फिर जाने के लिये तैयर हो गये. चच्चा जाने को राज़ी नहीं थे क्योंकि एक बार हश्र देख चुके थे.


नेता जी ने समझाया कि ऐसी छोटी मोटी चीज़ों से हार जाओगे तो देश आगे कैसे बढेगा. मैं बहुत चोटें खा चुका हूं. सिपाहियों को लार्ड ने ट्रेनिंग अच्छी दी है. इतनी बार मारा, कभी जेल में, कभी जल्से जलूस में लेकिन कभी हड्डी नहीं टूटी. पता नहीं कैसा वार करते हैं कि चोट तो खूब लगती है मगर खून भी नहीं निकलता. अगर खून निकल आया तो समझो सिपाही की नौकरी गयी. पापकार्न का डिसिप्लिन बहुत सख्त है. यही तो खूबी है.


चच्चा बोले हमें पिटना नहीं है. अगर पिट गये तो लार्ड से ताल्लुकात का क्या फ़ायदा? ऐसा तो नवाब खशखशी के नौकर भी नहीं करते. मैं कई दफ़ा नवाब साहब से मिल चुका हूं. नेता जी ने कहा: तुम नहीं जानते, यह देसी नवाब अंग्रेज़ी तौर तरीके क्या जानें. उनका डिसिप्लिन अच्छा नहीं है जभी तो नवाबी हाथ से निकल रही है. खुश हो गये तो पूछ बैठे "मांग क्या मांगता है" उसने हुकूमत मांग ली तो खुशी खुशी देदी और खुद निकल गये जंगलों की तरफ़. यह भी नहीं सोचा कि बच्चे क्या खाएंगे.





चच्चा बोले मुझे पता नहीं था कि बैटन क्या होता है. नेता जी से शर्म के मारे नहीं पूछा. वह कहते तुम्हें इतना भी नहीं पता. जब स्कूल में फ़ंक्शन हुआ, चार वर्दीधारी जिनके कोट और टोपियां लाल थीं एक छडी लेकर आये. यह एक काली सी पुरानी लकड़ी थी.....

चच्चा बे-दिली से दोबारा नेता जी के साथ बंगले पर गये. नेता जी ने स्लिप आगे बढाई. सन्त्री स्लिप लेकर अंदर गया. दोनों गेट पर खडे रहे. लगभग एक घंटे से बाद सन्त्री वापस आया और दोनों को अंदर चलने का इशारा किया. बरामदे में ले जाकर उसने मोढों पर बैठने को कहा और बताया कि साहब नाश्ता करता है अभी इन्तिज़ार करने को बोला.


चच्चा की जान में जान आयी. खडे खडे टांगें दर्द करने लगीं थीं. बैठने को मिला तो बंगले में इधर उधर नज़रें दौडाने लगे. वीराने में क्या खूबसूरत बंगला है. दूर दूर तक फूल खिले हैं. सन्त्री अपनी ड्यूटी पर मुस्तैद हैं. एक सन्नाटा सा पसरा है. बिना इजाज़त कोई कान तक नहीं हिलाता.


आखिर तलबी का वक्त आ गया. दोनों अंदर गये और लार्ड पापकार्न को झुक झुक कर फ़र्शी सलाम किये. "साहब का इकबाल बुलंद रहे."


लार्ड ऊंची कुर्सी पर विराजमान था. नेता जी ने कहा " हज़ूर स्कूल में सालाना फ़ंक्शन हो रहा है. आप की तशरीफ़ आ जाये तो बडी मेहरबानी"


लार्ड बोला " हम देसी स्कूल में नहीं जाता. हम तुम्हारा रेक्वेस्ट पर अपना बैटन देदेगा."


नेता जी ने सर झुका दिया.


वापसी पर नेता जी बहुत खुश थे. बोले यह हैं उसूलों वाले शासक. देसी स्कूल में नहीं जाते हैं तो अपना बैटन दे दिया. अगर मेरी इतनी पहुंच न होती तो बैटन नहीं मिलता. बैटन पहले ज़िले में घूमेगा फिर स्कूल में आयेगा. सालाना फ़ंक्शन की शुरुआत इसी से होगी.


चच्चा बोले मुझे पता नहीं था कि बैटन क्या होता है. नेता जी से शर्म के मारे नहीं पूछा. वह कहते तुम्हें इतना भी नहीं पता. जब स्कूल में फ़ंक्शन हुआ, चार वर्दीधारी जिनके कोट और टोपियां लाल थीं एक छडी लेकर आये. यह एक काली सी पुरानी लकड़ी थी.......कुस्तुनतुनिया के ज़माने की. इस लकड़ी का बडा सम्मान किया गया. बडे नारे लगे कि लार्ड पापकार्न का बैटन आया. मैंने सोचा शायद इसी डंडे से पापकार्न का शासन चलता है. लेकिन यह लकडी अब पुरानी हो चुकी है, कब तक चलेगी...?

Sunday, September 26, 2010

गिद्‍ध

राम आसरे बाबू ने छतरी बगल में दबाई, थैला हाथ में पकडा और नाक पर चश्मा ठीक करते हुए घर से निकले. उन्हें कचहरी जाना था. वैसे वह साइकिल पर जाते लेकिन धुप तेज़ थी इसलिए उन्हें छतरी लेना पडी. छतरी लगाकर साइकिल चलाना उनके बस का रोग नहीं था इसलिए वह पैदल ही चल पडे. उन्होंने सोचा कि आगे चलकर रिक्शा कर लेंगे लेकिन जेब ने इजाज़त नहीं दी.
कचहरी बहुत दूर थी. उन्होंने छतरी खोल ली. कुछ दूर सडक सडक गये फिर एक गली में मुड गये. उन्हें मालूम थ कि यह गली मेहल्ले में से होती हुई ज़मीन के ऐसे भाग में खुलती थी जिसमें लोग कूडा कचरा डालते थे. फिर उस मैदान से गुज़र कर मुखय सडक थी जिस पर कचहरी और अन्य सरकारी दफ़्तर थे. यह शार्टकट रास्ता था. मैदान की ज़मीन में जगह जगह गड्ढे थे जहां से लोग मिट्टी खोद ले गये थे. कूडे के ऊंचे ऊंचे ढेर लगे थे जिन से उठ रही बदबू ने उन्हें नाक पर रुमाल रखने पर मजबूर कर दिया था. कूडे के ढेरों के बीच से निकलते और गड्ढों से खुद को बचाते हुए वह चले जा रहे थे कि एक स्थान पर कूडे से उठ्ने वाली बदबू बहुत तेज़ हो गयी. उन्होंने निगाह उठाकर देखा तो उनके सामने कुछ दूरी पर किसी जानवर की लाश पडी थी जिसे आवारा कुत्ते और गिद्‍ध भंभोड रहे थे.
वह जल्दी से आगे बढ गये. कुत्ते और गिद्‍ध उन्हें अपनी ओर आता देखकर दाएं बएं खिसक गये. उन्होंने पहली बार गिद्‍धों को इतने पास से देखा था. स्कूल की पढाई करने के बाद वह एक स्थानीय आफिस में क्लर्क हो गये थे, वहीं से शब्द बाबू उन्के साथ ऐसा चिपका कि रिटायरमेन्ट के बाद भी उनके नाम का अटूट अंग बन चुका था.
सुन्सान रास्ते से गुज़र कर वह मेन रोड पर आ गये. उन्के मस्तिष्क में अब भी लाश की बदबू बसी हुई थी. वह सोचने लगे कि बेकार उन्होंने इस शार्टकट से गुज़रना पसंद किया. उनकी आंखों के सामने अब भी गिद्‍धों के चेहरे उभर रहे थे. दोनों डैने ऊंचे किये, गर्दन झुकाए हुए गिद्‍ध बिल्कुल किसी दार्शनिक की भांति विचारों में डूबे हुए थे. वह आदमी से भयभीत नहीं थे. उसे अपनी ओर आता देख कर वह पंख फडफडाकर नहीं उडे. उनकी आंखों में लालच या जल्दी से पेट भरने की लालसा की कोई चमक नहीं थी. वे लाश के पास बैठे हुए चुपचाप अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहे थे.राम आसरे बाबू सोचने लगे कि वे अगर लाशें न नोचते तो शायद फ़िलास्फ़र होते.............!
गिद्‍धों के बारे में बहुत से विचार उनके मन में कौंध रहे थे. हर बार इन विचारों से उन्होंने अपना ध्यान हटाना चाहा लेकिन गिद्‍धों की आकृतियां उनका पीछा करती रहीं.
इस उधेडबुन में उन्हें पता भी न चला कि कब कचहरी का गेट आ गया. गेट से अंदर जाते हुए उन्होंने देखा सामने कलक्ट्रेट की इमारत धूप में चमक रही थी. वहां इमारतों का जंगल उग रहा था. इस अहाते में कई विभाग थे. उनकी आंखों में चमक लगने लगी. कुछ दिन पहले ही उन्होंने अपनी आंखें बडे अस्पताल में टेस्ट करवाई थीं. डाक्टर ने कुछ समय बाद आप्रेशन के लिये कहा था. उन्हें रिटायर हुए छः माह बीत गये थे. पेंशन ही अब एकमात्र सहारा थी. सारी ज़िन्दगी वह एक कलर्क रहे थे. वेतन बस इतना था कि खींच तान कर गुज़ारा हो जाता था. इसी वेतन में उन्होंने अपने तीन बच्चे पाले थे और एक लडकी की शादी की थी. दफ़्तर में उनकी ईमानदारी की छाप थी. इस बात से बेखबर कि उनके आस पास क्या हो रहा है, कौन कितना कमा रहा है, वह अपने काम में लगे रह्ते. पुराने कलर्क थे इस्लिये दफ़्तर के लोग उन्हें बर्दाश्त करते रहे.
सम्बंधित विभाग के सामने पहुंच कर उन्होंने छतरी बंद कर ली. रुमाल से माथे का पसीना पोंछा और चिक उठाकर अंदर प्रवेश किया. कमरे में घुसते ही पहले तो अंधेरा अंधेरा सा लगा लेकिन कुछ समय बाद ही सब कुछ साफ़ साफ़ दिखाई देने लगा.
बडे बाबू कंधे उचकाए और सर झुकाए कुर्सी में धंसे हुए थे. राम आसरे ने ध्यान से देखा......ऐसा चेहरा वह पहले कहीं देख चुके थे.........! कहां देखा था याद नहीं
उन्होंने कांपते हाथों से अपनी अर्ज़ी आगे बढाई. बडे बाबू ने चश्मा उतारा, रुमाल से उसके लेंस साफ़ किये, दोबारा नाक पर जमाया, पान की पिचकारी रद्दी की टोकरी में मारी, फिर अर्ज़ी हाथ में लेकर राम आसरे को घूर कर देख्ने लगे.
राम आसरे का पूरा शरीर कांप गया.
"काम हो जायेगा" बडे बाबू ने कहा.
उनकी आंखों में खुशी की ज्योति जगमगा उठी. काम इतनी जल्दी बन जायेगा उन्होंने सोचा भी न था. आखिर ईमानदारी भी कोई चीज़ होती है. उन्होंने हाथ जोडकर बडे बाबू को धन्यवाद दिया.
वह वापस मुडने ही वाले थे कि बडे बाबू ने कहा "चाय पानी ?"
उन्होंने जेब में हाथ डाला, दस का एक नोट निकाल कर बडे बाबू की ओर बढाया. नोट देखकर बडे बाबू ने एक ज़ोरदार ठहाका लगाया कि उसका मुंह पूरा खुल गया और उसके पान से गंदे टेढे मेढे दांत दिखाई देने लगे....
"दस रुपये से काम नहीं चलेगा.....आप भी मज़ाक अच्छा कर लेते हैं."
"चाय पानी में कितने लगेंगे ?"
"आप से केवल दस हज़ार.... आप अपने आदमी हैं न !"
"दस हज़ार" उन्होंने धीरे से दोहराया.
"दस हज़ार" बडे बाबू ने कहा और उनके चेहरे पर आंखें गाड दीं.
राम आसरे का चेहरा पीला पड चुका था. "कुछ कम कर लीजिए, गरीब आदमी हूं"
बडे बाबू का पारा एकदम चढ गया. "गरीब तो सभी हैं, नीचे से ऊपर तक सभी खा रहे हैं. हमें क्या मिलता है, समझो कुछ भी नहीं."
उन्हें समझौता करना पडा
वह दफ़्तर से बाहर निकले. उनके कदम लडखडा रहे थे. उनके दिमाग में फिर गिद्‍ध का चेहरा उभर आया. कंधे उचकाए और सर झुकाए वह किसी विचार में डूबा हुआ था. शायब उसे किसी नयी लाश का इंतज़ार था. शक्ल से दार्शनिक लगता था. .......ऊपर से उसके पान से गंदे टेढे मेढे गंदे दांत.......भगवान बचाए......गिद्‍ध कहीं का !

उन सभी पाठकों का शुक्रिया कि उन्हों ने इस नये ब्लाग को पढा. विशेष तौर से कहानी सन्यासी के लिये जिन्होंने अपनी टिप्प्णी भेजी लेखक उनका बहुत आभारी है.

Sunday, May 16, 2010

एक कहानी

सन्यासी


चेन्नै सेन्ट्रल से राप्ती सागर एक्स्प्रेस को छूटे हुए एक घन्टा हुआ था. रात का डेढ़ बज चुका था. एसी कम्पार्टमेन्ट में यात्री आराम से सोए हुए थे. एक छोटे स्टेशन पर ट्रेन रुकी और 10 -12 यात्रियों का एक जत्था एसी कम्पार्टमेन्ट में चढ़ आया. इन लोगों के शोर से सारे यत्री परेशान हो उठे. बहुत देर तक वे आपस में बातें करते रहे और फिर सो गये.
सुबह होते ही कम्पार्टमेन्ट में चहल पहल हो गयी. चाय नाश्ते के साथ ज़िन्दगी जाग उठी. यात्रियों का जो जत्था रात को ट्रेन में चढ़ा था उसमें 20 वर्ष के नौजवानों से लेकर 50 वर्ष की पक्की आयु के लोग थे. उन्होंने जाग कर मोबाइल पर बातें करना शुरु कर दीं.
"अब हम आधे घन्टे में ........ स्टेशन पर पहुंचने वाले हैं"
"नाश्ता भिजवा देना"
"पेपर प्लेट्स और मिनरल वाटर भी........"
जब ट्रेन स्टेशन पर पहुंची तो नौकर नाश्ता लिये पहले से ही वहां मौजूद थे. उन्होंने पेपर प्लेट्स, मिनरल वाटर की बोतलें, और नाश्ते के पैकेट यात्रियों के जत्थे को दिये. सभी नौकर ड्रेस में थे, उन्के कन्धों पर एक बड़ी कम्पनी का मोनोग्राम बना हुआ था. मालूम हुआ कि यात्रियों का येह जत्था एक बड़े व्यापारिक संस्थान का मालिक है, जिसकी शाखाएं देश के कोने कोने में फैली हुई हैं.


तभी मुसाफिरों ने देखा कि गोरे चिट्टे, गेरुए वस्त्र धारी एक सन्यासी ने एसी कम्पार्टमेन्ट में प्रवेश किया.मेरी नज़रें भी अनायास उस की ओर उठ गयीं. क्लीन शेव और घुटे हुए सिर का यह नौजवान. जिसकी आयु मुश्किल से 25-26 वर्ष होगी. चेहरे से यूरोपियन लगता है. यह और सन्यासी..... ?


वे नाश्ता करने के साथ साथ हंसी मज़ाक़ और बाए चीत करते रहे. वे दक्खिन भारत के भ्रमण के बारे में ज़िक्र करते. उसके बाद घरेलू बातें शुरु हो जातीं..........
"नितिन भैया लन्दन से कब लौटे गा ?"
"बबली आन्टी पेरिस गयीं हैं"
"चीकू की शादी में बड़ा मज़ा आया था."
फिर कहीं न कहीं से मोबाइल की घन्टी बज उठ्ती.......
वे खूब खाते, मिनरल वाटर पीते, स्टेशन आने से पहले नौकरों को सूचित करते, उनसे खाने पीने का सामान मंगवाते. खाने के बाद पेपर प्लेट्स, खाली बोतलें, चाय के कप, खाने का बचा सामान सीटों के नीचे खिसका देते. दोपहर तक उन्होंने बहुत सा कचरा एसी कम्पार्टमेन्ट की सीटों के नीचे भर दिया.
ए.सी. में यत्रा करने वाले लोगों में ज़्यादातर धनाड्य व्यापारी वर्ग या फिर सरकारी वर्ग होता है. उनमें से कोई भी एक बार यह नहीं बोला कि कचरा हमारी सीटों के नीचे मत फेंको. सोचा कि हमें क्या लेना देना. सरकारी ट्रेन है. हमें तो कुछ समय बाद इस ट्रेन से उतर कर चले जाना है.
ट्रेन अपनी मंज़िल की ओर बढ़्ती जा रही थी. नागपुर का स्टेशन आया. ट्रेन वहां पर कुछ देर को खड़ी हो गयी.
वह यात्री जत्था उतर कर हंसता गाता चला गया.
कम्पार्टमेन्ट के मुसाफिरों ने चैन की सांस ली. चलो धनाड्य असभ्य लोगों से पीछा तो कटा. तभी मुसाफिरों ने देखा कि गोरे चिट्टे, गेरुए वस्त्र धारी एक सन्यासी ने एसी कम्पार्टमेन्ट में प्रवेश किया.
मेरी नज़रें भी अनायास उस की ओर उठ गयीं. क्लीन शेव और घुटे हुए सिर का यह नौजवान. जिसकी आयु मुश्किल से 25-26 वर्ष होगी. चेहरे से यूरोपियन लगता है. यह और सन्यासी..... ?
मैं उसे एक टक देखता रहा. उसने अपना बैग बर्थ पर रखा और आराम से बैठ गया. ट्रेन अभी रुकी हुई थी. ज़रा देर बाद वह बाहर गया और एक दर्जन केले खरीद कर ले आया.
मेरी निगाहें उसी की ओर लगी हुई थीं. उसने बैग से अखबार निकाला, उसे अपने घुटनों पर बिछाया. फिर वह केले छील छील कर खाने लगा. वह ध्यान से छिलके अखबार पर रखता रहा. केले खाने के बाद उसने सारे छिलके सावधानी से अखबार में लपेट लिये. फिर उसने झुककर ट्रेन के फ़र्श को देखा. फ़र्श पर केला छीलते समय एक आध रेशा गिर गया था, वह उसने उंगली में चिपका कर उठाया और अखबार में रख लिया.
ट्रेन चल चुकी थी. वह इंतज़ार करता रहा. अगले स्टेशन पर बाहर जाकर छिलके कूड़ेदान में डाल दिये.
मेरी उत्सुकता बढ़्ती जा रही थी. वह वापस आया तो मैंने उसे अपना परिचय दिया और बातें शुरु कर दीं.
उसने बताया कि वह जर्मनी का रहने वाला है. उसके पिताजी का बिज़नेस कई देशों में है. वह भारत के धर्म और दर्शन से बहुत प्रभावित है और अपने ढंग से दुनिया को देखना चाहता है.
मैंने कहा " यह सन्यासी का वेश.......?"
उसने बताया कि उसे इस वेश भूषा में शांति मिलती है. दूसरे यह कि भारत के लोग सन्यासियों को सम्मान की नज़र से देखते हैं.
मैंने पूछा "भारत के लोग आप को कैसे लगे ?"
उसने कहा " लोग अच्छे हैं लेकिन उनमें सामाजिक दायित्व की कमी है. वे दूसरों के हितों का ध्यान नहीं रखते."
उसकी बात मुझे झकझोर गयी. मैं सोचने लगा कि हम लोग दूसरों के बारे में सोचना कब शुरू करेंगे ?

Wednesday, February 10, 2010

यह है मेरा शहर

शाम होते ही शहर की रोशनियां गुल कर दी गयीं. यह वह शहर है जहां का दस्तूर निराला है. मेरा शहर उत्तर प्रदेश के मशहूर हिस्से रुहेलखण्ड का एक भाग है. अभी तक तो यह उत्तर प्रदेश में ही है लेकिन पता नहीं कब यह किसी और प्रदेश में चला जाये या इस्का नाम बदल दिया जाये. यह वह शहर है जो मुगल बादशाह शाहजहां के नाम से मनसूब है. पुराने शाहजहांनाबाद (दिल्ली) में दो इमारते - लाल किला और जामा मस्जिद, आगरा में एक यादगार ताजमहल और रुहेलखण्ड में जमीन का यह भाग जिसे शाहजहांपुर कहते हैं, शाहजहां के लाज़वाल वकार की कहानी कह रहा है.
मुगलों का दौर गुज़र गया, आसार बाकी हैं वह भी आहिस्ता आहिस्ता मिट रहे हैं. ताजमहल के संगे मरमर को तेज़ाबी माद्दे खोखला कर रहे हैं, उसकी बुनियदें धंस रही हैं. जामा मस्जिद के पत्थर घिस चुके हैं उनके ज़र्रात झड रहे हैं. लाल किला भाषण देने के काम आ रहा है, शीश महल के शीशे काले पड चुके हैं, दीवाने आम और दीवाने खास की हालत देखने के काबिल है ऐसे में अपने शहर का ज़िक्र क्या किया जाये. लेकिन हर शहर में कुछ अच्छाइयां कुछ बुराइयां होती हैं क्यों न उनहीं पर बात की जाये:
यह शहर दो नदियों गर्रा और खन्नौत के बीच बसा है. बहुत सारे शहर सिर्फ एक नदी के किनारे बसे हैं. इस में खास बात यह है कि यह दो नदियों के दरम्यान है. यहां पानी की बहुत इफ़रात है इस्लिये यहां पानीदार लोगों की कमी नहीं. यहां वह जियाले पैदा हुए जिन्होंने अंग्रेज़ों के छ्क्के छुडा दिये.
यह शहर राम प्रासाद बिस्मिल, अश्फ़ाक उल्लाह खान और ठाकुर रोशन सिंह की वजह से ही मशहूर नहीं है जिन्होंने काकोरी में सरकारी खज़ाना लूटने के जुर्म में फांसी की सज़ा पायी और अपना नाम आज़ादी के अमर शहीदों में लिखा गये. इस शहर में 1857 के दौरान अहमद उल्लाह शाह ने अंग्रेज़ों से आखरी लडाई लडी. यहीं उनका सर दफन है. 1857 की लडाई जीतने के बाद नवाब बहादुर खां का किला और मोहल्ला ख्वाजा फीरोज़ में नवाब याकूब अली खां का किला खोद कर ज़मीन के बराबर कर दिया गया. अंग्रेज़ों ने अपना गुस्सा ईंट पत्थरों पर भी उतारा.
उत्तर प्रदेश में नदियों का बहाव उत्तर से दखिन को है इसलिये शहर बसाने वलों की मजबूरी थी कि शहर भी लम्बाई में नदियों के बीच की पट्टी में बसाया जाए. उन्होंने शहर बसा कर दो सडकें लम्बाई में निकाल दीं. 1637 में यह शहर बसाया गया, अब यह नदियों के किनरों के बाहर तक फैल चुका है. सडकें अब तंग पड चुकी हैं और उन पर कई प्लान लागू हैं - जैसे शहर को हरा भरा और साफ़ सुथरा बनाने का प्लान. इतिहास पर एक नज़र डाल जाइए - चाहे महाराजा अशोक का ज़माना हो या चंद्र्गुप्त मौर्य का, सड़कों के दोनों ओर पेड़ लगाने की परम्परा रही है. इस ज़माने में ग्रीन सिटी और क्लीन सिटी का सपना साकार करना है. इसके लिये सडकों के किनारे पेड लगाये गये. पेड जब बढे तो बिजली के तारों से बातें करने लगे. अब पेड काटते हैं तो पर्यावरण का सत्यानास होता है, नहीं काटते हैं तो बिजली वाले परेशान हैं - क्या किया जाए ?
जब दरख्त लगाने से सिटी ग्रीन हो गया तो क्लीन सिटी पर अमल करते हुए शहर के नाले नालियों की सफाई का काम शुरु हुआ. बारिश का इस शहर की सफाई से पुराना बैर है. इधर नाले नालियों का कचरा सडक के किनरे डाला गया कि ज़रा सूख जाए तो उठाया जाए, उधर बारिश शुरु हुई. सडकें तालाब बन गयीं और कचरा चारों ओर फैल गया. ग्रीन सिटी और क्लीन सिटी का सपना अधूरा रह गया.
फिर सोचा गया कि और शहरों की तरह वन वे ट्रैफिक की शुरुआत की जाए. सडकों को डिवाइडर लगा कर दो भागों में बांट दिया गया. दुकानों के सामने वाहन पार्क करने से मना किया गया ताकि लोगों को असुविधा न हो. अब लोग बीच सडक पर अपने वहन पार्क करते हैं और वन वे ट्रैफिक का मज़ा लेते हैं.
संचार क्रांति भी यहां बडी तेज़ी से आयी. रोज़ नयी नयी कम्पनियां सड़्कों के किनारे केबिल डाल रही हैं. केबिल मार्क करने के लिए पत्थर के खूंटे गाड़ रही हैं. लोग अन्धेरे में उनसे टकरा कर हाथ मुंह तुड़्वा रहे हैं. संचार क्रांति का फ़ायदा यह है कि इधर ठोकर लगी उधर मोबाइल से घर पर सुचना दी कि चोटिल हो गये हैं आकर उठा ले जाओ. यदि संचार क्रांति में तेज़ी न आयी होती तो इतनी जलदी सुचना देना संभव नहीं था.
बिजली हो या टेलीफोन दोनों यहां पर आंख मिचोली खेलते हैं. लैन्डलाइन टेलीफोन लोगों ने कटवा दिये और मोबाइल से नाता जोडा है क्योंकि लैन्डलाइन टेलीफोन का ठीक रहना बडे सौभाग्य की बात है:-
मैने एक कम्पनी का
बेसिक टेलीफोन कनेक्शन लिया
लोगों ने कहा:
नये ज़माने में
पुरानी बांसुरी बजा रहे हो
लोग हवाई जहाज़ की सोचते हैं
तुम तांगे पर जा रहे हो
यह टेलीफ़ोन तो
लगता ही नहीं है
इस पर नम्बर मिलता ही नहीं है
अक्सर खराब रह्ता है
मैने कहा:
चलो यह भी अच्छा है
कभी तो बेवजह कालों से
छुट्टी मिलेगी
टेलीफोन खराब है
मसरूफियत के इस दौर में
यह बहाना भी अच्छा है
इस शहर के बारे में लोगों के विचार कुछ भी हों, यह एक एतिहासिक शहर है जो इतिहास की सुनहरी यादों को गले से लगाये अतीत और वर्तमान के झूले में झूल रहा है. यहां के लोगों में सौहर्द और भाई चारा है. लोग एक दूसरे के दुख दर्द में बखूबी काम आते हैं. यहां के लोगों में शिष्टाचार, और बोल चाल की भाषा का एक उत्कर्ष रूप देखने को मिलता है. यहां बोली जाने वाली भाषा रेडियो, टी वी और सिनेमा की जान है. इस शहर ने अपनी भाषा को बचा रखा है और यह एक बड़ी बात है.
तो यह है मेरे शहर की कहानी.