Tuesday, October 5, 2010

अग्निवेष शुक्ल की गज़लें

रात के पिछ्ले पहर

बेखुदी ने साथ छोडा रात के पिछ्ले पहर
दर्द ने फिर आ झंझोडा रात के पिछ्ले पहर

नर्म एह्सासों की नंगी पीठ घायल हो गयी
यूं चला यादों का कोडा रात के पिछ्ले पहर

फिर तसव्वुर के चमन में खिल उठा बेसाख्ता
नर्गिसी आंखों का जोडा रात के पिछ्ले पहर

बेबसी से हमने अक्सर ज़िन्दगी की रेत को
कोरे पन्नों पर निचोडा रात के पिछ्ले पहर

सुबह से ता शाम हमने मौत की किस्तें भरीं
मर गये बस और थोडा रात के पिछ्ले पहर

सोचने बैठे तो हमने अपने होने का भरम
जाने कितनी बार तोडा रात के पिछ्ले पहर

फूल, खुश्बू, चांद, मयखाना
फूल, खुश्बू, चांद, मयखाना गज़ल में आ गया
एक तेरे ज़िक्र से क्या क्या गज़ल में आ गया

कर रहा था मैं तो अपनी ज़िन्दगी का तजज़िया
दूर तक फैला हुआ सहरा गज़ल में आ गया

कद परिन्दे का बढा तो घर बदलना ही पडा
दर्द मेरे दिल से यूं निकला गज़ल में आ गया

आज फिर पत्थर हुईं एह्सास की शहनाइयां
आज फिर लफ्ज़ों का सन्नटा गज़ल में आ गया

मेरे कम्ररे की खुली खिडकी से आकर चांद ने
रात भर जो नूर बरसाया गज़ल में आ गया

छुप के रोना ज़रूरी था
छुप के रोना ज़रूरी था मेरे लिये
घर का कोना ज़रूरी था मेरे लिये

मेरा अन्जाम ही मेरा आगाज़ था
कत्ल होना ज़रूरी था मेरे लिये

खुद को पाने का कोई ज़रिया न था
खुद को खोना ज़रूरी था मेरे लिये

चंद रिश्ते मेरी रूह पर बोझ थे
जिनको ढोना ज़रूरी था मेरे लिये

तेरा दामन नहीं तो येह सहरा सही
कुछ भिगोना ज़रूरी था मेरे लिये

कोई वादा था मुझसे किसी ख्वाब का
रात सोना ज़रूरी था मेरे लिये




उपरोक्त गज़लें अग्निवेष शुक्ल की हैं. अग्निवेष शुक्ल की गिन्ती शाह्जहांपुर के बडे शायरों में होती है. वह एक ऐसे कवि थे जिनकी ज़ुबान पर एहसास बोलता था, अल्फ़ाज़ उनकी वाणी से दर्द बनकर फूट पड़ते थे. ज़िन्दगी की हकीकतों को उन्होंने बखूबी समझा है और शेरों के खूबसूरत सांचे में ढाला है. अफ़सोस उनकी ज़िन्दगी ने ज़्यादा साथ नहीं निभाया. 8 जून 2003 ई. को 50 वर्ष की उम्र में उन्होंने इस संसार को अल्विदा कहा. उनका कलाम हिन्दी - उर्दू में ’रात के पिछ्ले पहर’ के नाम से उनकी मॄत्यू के बाद प्रकाशित हुआ.

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