Wednesday, March 28, 2012

कहानी मेरे झूठ की


मुज्‍़तर अंसारी


उर्दू कहानीकार हैं. 1929 में शाहजहांपुर के मोहल्‍ला ककराकलां में जन्‍म हुआ पहली कहानी कुर्बानी के नाम से लाहौर से निकलने वाली उर्दू मैगजीन निराला में छपी. 1947 से कहानियां लिख रहे हैं. आप की कहानियों में सामाजिक बुराइयों के प्रति एक विरोध झलकता है. कहानी का ताना बाना अपने आस पास के माहौल से बुनते हैं. उन्‍की कहानियों में समाज के जख्‍म रिस्‍ते हैं, कड़वी सच्‍चाइयां सामने आती हैं. बाल आईनों के, नई करवट कहानियों के संग्रह हैं.
मेरी मां जिद्दी हैं खुदसर और बागी ख्‍वातीन में से हैं. बरसें गुजर चुकी हैं जब फौत हुई थीं. लेकिन मर कर भी मरना नहीं चाहतीं. वो अक्‍सर लाशऊर में उभर आती हैं. किसी वक्‍त तंज के अंदाज में मुस्‍कुराती हैं और मेरे जेहन में माजी के अंधेरे को किसी सैयाल की तरह उंड़ेल देती हैं. सामने कई मंजर आ जाते हैं जिनमें मैं मुख्‍तलिफ हालात में खुद को देखता हूं. किसी वक्‍त बस्‍ता बगल में दाबेस्‍कूल जाता दिखाई देता हूं, किसी वक्‍त वाल्‍दा मोहतरमा की गोद में कहकहे लगाता हुआ नजर आता हूं. और कभी अपने आपको अपने बाग में उछलते हुए देखता हूं.

यह सारे मनजर मुझे पागल होने का एहसास कराते हैं. लेकिन ऐसा नहीं है. मैं अक्‍सर सोचता हूं वाल्‍दा साहिबा कितनी हठीली, कितनी जिद्दी, और कितनी मुस्‍तकिल मिजाज हैं. दिन हो या रात, अंधेरा हो या उजाला, हर वक्‍त हर माहौल में मेरे करीब आ जाती हैं.

मैं वाल्‍दा के मुतअ‍ल्लिक बड़ी शिद्दत से सोचता हूं. इतना कि मेरी सोच का बदन जख्‍मी हो जाता है. आंखों के सामने अंधेरों के हयूले नाचने लगते हैं और मैं अपने अंदर की गहराई में डूबने लगता हूं.

आज ईद है, शाम का वक्‍त है, मैं कब्रिस्‍तान आया हूं. आया तो ईदगाह था लेकिन मां की कब्र देखने कब्रिस्‍तान में चला आया हूं.
यह वो जगह है जहां जिंदगी की सारे हकीकतें मिट्टी में मिल जाती हैं. और जहां सारे रिश्‍ते सारी मोहब्‍बतें जमीन की तेजाबी मिट्टी चाट जाती है. और जहां मेरी नामनिहाद सच्‍चाई के चेहरे से परदा उठता है और मेरे झूठ का मकरूह चेहरा सामने आता है. और मेरी सोच के तेज रफ्तार हिरन कुलाचें भरने लगते हैं और मैं कागज की कमजोर नाव की तरह हिचकोले खाने लगता हूं.

मैं वाल्‍दा की कब्र के चबूतरे पर बैठा हूं. आगे पीछे कब्रें ही कब्रें दिखाई दे रही हैं. मैं सोच रहा हूं तसव्‍वुर भी कितनी अजीब चीज है मुर्दों को जिंदा कर देता है और जिन्‍दों को मार डालता है.

अगस्‍त 1947 की बात है जब हिन्‍दोस्‍तान आजाद हुआ था. इन दिनों मैं देहली में था, वालिद साहब भी साथ थे.  हिन्‍दोस्‍तान की तक्‍सीम के अलमिये ने इंसानियत को बेगुनाह इंसानों के खून से नहा दिया था. मुझे याद आ रहा है वह तनहा ही 1947 में देहली गई थीं और वहां से हमें अपने शहर ले आई थीं.

अक्‍तूबर में बारिश या तो खत्‍म हो जाती है या कमजोर पड़ जाती है. लेकिन उस साल दो तीन बारिशें ऐसी हुईं कि जिले की सारी नदियां पानी से भर गईं. तालाब भी आंखें दिखाने लगे थे. अचानक सारा शहर सैलाब की लपेट में आगया था. हमारा बहुत सा सामान देहली में बरबाद हो चुका था जो बचा था उसे सैलाब के पानी ने हड़प कर लिया.....

शाहजहांपुर में जो कुछ गुजरा वह काफी इबरत अंगेज और सबक आमोज था. सारे रिश्‍तेदारों ने आंखें फेर ली थीं, जिंदगी हम सब के लिए दीवाने का ख्‍वाब बन गई थी. रूखी सूखी मिलना दुश्‍वार हो गया था. मुसीबत की इस घड़ी में खान बहादुर फजलुर्रहमान खां काम आये थे. उन्‍होंने बड़ा सहारा दिया था. काम भी दिलाया था. वक्‍त गुजरता गया, मेरी हालत कुछ संभल गई थी.

गालिबन 1954 के शबो रोज गुजर रहे थे. इन्‍हीं दिनों वाल्‍दा को मेरी शादी का ख्‍याल आया. चन्‍द ही महीनों में उन्‍होंने मेरी शादी जन्‍नती बानो से कर दी.

अब बारह तेरह साल गुजर चुके थे. शादी के दो साल बाद मेरी पहली लड़की शाहीना बेगम पैदा हुई थी. उसके बाद चार बच्‍चे और भी पैदा हुए. वाल्‍दा बहुत खुश थीं, पोते पोतियों में सबसे ज्‍यादा शाहीना बेगम से प्‍यार करती थीं. औलादों में सबसे ज्‍यादा मुझसे मोहब्‍बत करती थीं.


ठीक इन्‍हीं दिनों वाल्‍दा बीमार पड़ गईं. जिगर में खराबी तजवीज की गई, शहर के नामवर तजुर्बेकार डाक्‍टरों ने इलाज किया मगर फायदा न हुआ. आखिर में वाल्‍दा को डाक्‍टर मजहर खां की डिस्‍पेंसरी ले जाया गया. मैं वाल्‍दा को तीसरे दिन डाक्‍टर साहब की डिस्‍पेंसरी ले जाता था. वालिद साहब भी साथ होते थे. इलाज जारी हुए कई हफते गुजर चुके थे लेकिन फायदा नहीं हो रहा था.

उस दिन नवम्‍बर की सुबह थी. जर्द सूरज आसमान के सीने पर कपकपा रहा था, मैं मजहर खां की डिस्‍पेंसरी के बाहर खड़ा था. वाल्‍दा साहिबा डिस्‍पेंसरी के अंदर बैठी हुई थीं. अचानक ही डाक्‍टर साहब डिस्‍पेंसरी से बाहर आगये थे और बोले थे:

बेटा आपकी वाल्‍दा को टयूमर हो गया है. उनका आपरेशन होना जरूरी है. कम से कम दस हजार खर्च होंगे. इतना रूपया खर्च करना तुम्‍हारे लिए नामुमकिन है. बस अल्लाह से दुआ करो वह जल्‍द सेहतयाब हो जाएं. एक बात और याद रखना- वाल्‍दा से झूठ बोलना उनसे कहना कि वह बहुत जल्‍द सेहतयाब हो जाएंगी. लेकिन वह आपरेशन के बगैर अच्‍छी नहीं होंगी.

मैं कांप कर रह गया था. इसलिए कि झूठ से नफरत करने वाले को झूठ बोलने की तरगीब दी जा रही थी, वह भी अपनी अजीम मां से.

सारी हकीकत समझ में आ गयी थी. कुछ ही देर बाद हम तीनों अपनी रिहाइशगाह वापस आगये थे. वाल्‍दा साहिबा बिस्‍तर पर लिटा दी गयीं. वो आज बार बार मुझे देख रही थीं, जैसे मेरे चेहरे पर कुछ पढ़ने की कोशिश कर रही थीं.

वाल्‍दा साहिबा ने मुझे करीब बुलाया, वो बोलीं-

आज डाक्‍टर साहब देर तक तुम से बातें करते रहे थे. वो क्‍या कह रहे थे.

कोई मेरे अंदर चीख पड़ा .....

अब दिखा अपने किरदार की बुलन्‍दी. बोल सच, तू अपने आप को सच का सूरज कहता रहा है. दिखा अपनी मां को सच की चांदनी जिस पर तू नाज करता रहा है.

मैं अपने अन्‍दर केतली के पानी की तरह उबलने लगा. मां को धोखा जो देना था. अपने चेहरे पर रियाकारी की सियाही जो पोतना थी.

मेरी आंखों में आंसू आ गये थे. वाल्‍दा से मैंने कहा था- आप बहुत जल्‍द अच्‍छी हो जाएंगी, अब्‍बूजान आप से सच कह रहे थे.

अपनी बात खत्‍म करके मैंने उनकी तरफ से गरदन मोड़ ली.क्‍योंकि उन्‍की आंखों से अपनी आंखें मिलाने की हिम्‍मत मुझ में बाकी नहीं रह गयी थी.

मैंने चुपके से आंखों के आंसू खुश्‍क किये, गरदन मोड़कर वाल्‍दा को देखा. वो मेरी आंखों में कुछ तलाश करने लगीं, सोच विचार की लकीरें उन्‍की आंखों में काफी गहरी थीं. अगले ही लम्‍हे उन्‍होंने मुझसे पूछा – तुम झूठ तो नहीं कह रहे हो बेटा.

मैंने हिम्‍मत करके कहा:

मैंने कभी आप से झूठ बोला है क्‍या.

वाल्‍दा साहिबा की हालत दिन बदिन बिगड़ती जा रही थी. मैं अन्‍दर ही अन्‍दर मोमी शमा की तरह पिघल रहा था.

चांदनी रात हो या अंधेरी, मैं सोते सोते जाग पड़ता, मां के पास जाता, उन्‍को देखता और तन्‍हाई में रोता. झूठ बोलने का जानलेवा एहसास मेरी शख्‍सियत के लिए मुस्‍तकिल अजाब बना हुआ था. कुछ अरसे बाद उन्‍की हालत बिगड़ती गई.

अब वो हडि्डयों का खौफनाक ढांचा बन गयी थीं. जिगर, आंतें और मेदा सब बेकार हो गये थे. मुंह में सड़न पैदा हो गयी थी. रोज अन्‍को गुस्‍ल दिया जाता लेकिन सड़न दूर न होती.

उस दिन अचानक उन्‍की हालत खराब हो गयी. हम सब उन्‍के इर्द गिर्द खड़े हो गये. उन्‍होंने लरजती हुई आवाज में कहा था.

तुम बड़े लायक बेटे हो. तुम ने मुझ से कहा था मैं बहुत जल्‍द सेहतयाब हो जाऊंगी. यह था तो झूठ लेकिन सच से कहीं फायदेमंद.......

मैं इसके सहारे काफी अरसे तक जीती रही हूं. हर सुबह सोचती शाम तक संभल जाऊंगी. हर शाम मुझे सुबह के लिए पुर उम्‍मीद कर देती. लेकिन एक दिन तुम्‍हारी बहन ने मुझे वह सब कुछ बता दिया जो तुम ने उसे बताया और मुझ से छुपाया था. मुझे यकीन नहीं आया था कि मेरा प्‍यारा बेटा मुझ से झूठ भी बोल सकता है. अब मुझे मालूम हो गया है कि दस हजार रूपये न होने की वजह से मेरा आपरेशन न हुआ और मैं मौत के मुंह में जा पहुंची.

उन्‍के यह जुमले मेरे दिल में उतरते चले गये थे. लेकिन मैं चुप चाप खड़ा था. कुछ ही देर बाद उन्‍की जबान लड़खड़ाने लगी. मैं जैसे फांसी के फंदे में लटका हुआ था. आखिरी लम्‍हों में उन्‍होंने रूक रूक कर कहा था.

मेरे बेटा जल्‍द की अपने खान्‍दान को इस लायक बना देना कि कोई मरीज दस हजार रूपये न होने कें सबब कब्रिस्‍तान न पहुंचे, उस का इलाज रूके न आपरेशन, न वो मिट्टी का ढेर बने.

उन्‍का हाथ कटी हुई शाख की तरह उन्‍के सीने पर गिर चुका था, वह मिट्टी का ढेर बन चुकी थीं. वक्‍त ने दस हजार रूपये न होने की सजा मुझे देदी थी. मैं वाल्‍दा का जनाजा लेकर इसी जगह यहां कब्रिस्‍तान में आया था.......

(एब्रिज्‍ड)

Saturday, March 3, 2012

मैं कागज के सिपाही काट कर लश्कर बनाता हूं

न बन्दूकें न तलवारें न अब खंजर बनाता हूं

मैं कागज के सिपाही काट कर लश्कर बनाता हूं

न जाने देगी मेरी कमशनासी मुझको मंजिल तक

कि वो रहजन निकलते हैं जिन्हें रहबर बनाता हूं

कलीसा से न मन्दिर से न मस्जिद से मुझे मतलब

जहां इंसान मिलते हैं वहां मैं घर बनाता हूं

मेरी तकदीर भी रूठी है मुझसे शायद ऐ गौहर

वही बस्ती उजड़ती है जहां मैं घर बनाता हूं

गये मौसमों की कहानी न लिखना

कोर्इ बात खत में पुरानी न लिखना

जो कुचले हैं गुल इस बरस आंधियों ने

कहीं उनकी तुम बे जुबानी न लिखना

सहर खौफ आलूद शब जख्म खुर्दा

तुम इन साअतों को सुहानी न लिखना

कहां तक भला इनहिराफे हकीकत

सितम को भी गम की निशानी न लिखना

जमीं छोड़कर जो खलाओं में गुम हैं

इसे उन की तुम कामरानी न लिखना

मेरी चश्मे तर में सजे हैं जो आंसू

ये आर्इने हैं इनको पानी न लिखना

कलमकार हो तुम यह तसलीम गौहर

किसी का मगर खुद को सानी न लिखना