Saturday, March 3, 2012

मैं कागज के सिपाही काट कर लश्कर बनाता हूं

न बन्दूकें न तलवारें न अब खंजर बनाता हूं

मैं कागज के सिपाही काट कर लश्कर बनाता हूं

न जाने देगी मेरी कमशनासी मुझको मंजिल तक

कि वो रहजन निकलते हैं जिन्हें रहबर बनाता हूं

कलीसा से न मन्दिर से न मस्जिद से मुझे मतलब

जहां इंसान मिलते हैं वहां मैं घर बनाता हूं

मेरी तकदीर भी रूठी है मुझसे शायद ऐ गौहर

वही बस्ती उजड़ती है जहां मैं घर बनाता हूं

गये मौसमों की कहानी न लिखना

कोर्इ बात खत में पुरानी न लिखना

जो कुचले हैं गुल इस बरस आंधियों ने

कहीं उनकी तुम बे जुबानी न लिखना

सहर खौफ आलूद शब जख्म खुर्दा

तुम इन साअतों को सुहानी न लिखना

कहां तक भला इनहिराफे हकीकत

सितम को भी गम की निशानी न लिखना

जमीं छोड़कर जो खलाओं में गुम हैं

इसे उन की तुम कामरानी न लिखना

मेरी चश्मे तर में सजे हैं जो आंसू

ये आर्इने हैं इनको पानी न लिखना

कलमकार हो तुम यह तसलीम गौहर

किसी का मगर खुद को सानी न लिखना

No comments:

Post a Comment