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Saturday, October 31, 2015

साग़र वारसी

उर्दू के मशहूर शायर साग़र वारसी की किताब अभी हल ही में नगमा ओ नूर के नाम से छपी है. साग़र साहब उर्दू के उस्ताद शायर हैं. इस किताब में नातों का संकलन किया गया है. साग़र वारसी  मंझे हुए शायर हैं. उनका अंदाज़ और जज़्बा किसी तारुफ़ का मोहताज नहीं.  उनका कलाम 1968 में राबाब ए  ज़ीस्त के नाम से छाप चुका  है.  नगमा ओ नूर से एक खूबसूरत हम्द  देखिये. हम्द वो नज़्म है जो खुदा की तारीफ़ में कही जाती है 
राह में आएं जब  संकट
दूर भगाए रब संकट
या रब उस से रखना दूर
बख्शे जो मनसब संकट 
दाता जब तू पालनहार
भोजन का है कब संकट 
चैन से कैसे नींद आये 
जब लाये हर शब संकट 
जो उपजें इच्छाओं से 
हैं सब बे मतलब संकट 
मैं ने रब को दी आवाज़ 
आया है जब जब संकट 
रखा रब ने ही महफूज़
आये तो जब तब संकट
सागर रब से मांग मदद 
टल जाएंगे सब संकट   
अब एक नात के अशआर पेशे खिदमत हैं 
जब यह कहते हो  कि हैं दिल में उजाले उनके  
खुद को फिर क्यों नहीं कर देते हवाले उनके 
बाज़  औकात बड़े सख्त  मराहिल  आये 
फिर भी असहाब ने अहकाम न टाले  उनके  
दोनों आलम की जिन्हें हुकूमत बख्शी 
र्स आमोज़ हुए खुश्क निवाले उनके 
ख़ालिक़े कुल ने नकीब अपना बनाकर भेजा 
दोनों आलम में हैं एजाज निराले उनके 
उन से पहले के नबी वाक़िफ़े अज़मत थे सभी 
अपनी उम्मत को दिए सब ने हवाले उनके 
पैकरे नूर बनाया है खुदा ने उनको 
अर्ज़े कौनैन में फैले हैं  उजाले उनके 
फिर तो हो जाए उसे कुर्बे खुदा भी हासिल 
अपना घर कोई दिल में  बनाले  उनके 
रंग और नस्ल की उनके यहाँ तफ़रीक़ नहीं 
गन्दुमी उनके सफ़ेद उनके हैं काले उनके 
तुझ को भी सागर ए  आसी वो नवाजेंगे ज़रूर 
फैज़ ओ इकराम के हैं तौर निराले उनके  

Sunday, May 25, 2014

बोलती तन्हाइयां

अयूब असर का नाम शाहजहांपुर के बड़े शायरों में लिया जाता है। आप की किताब बोलती तन्हाइयां का प्रकाशन 2005 में हुआ। बोलती तन्हाइयां में ग़ज़लें और नज़्में हैं। अयूब असर की शायरी में जिन्दगी की कड़वी मीठी सच्चाइयां हैं । वह एक खुले दिल के इंसान थे साफ बात कहना और करना पसंद करते थे। उनकी शायरी भी उन्हीं की तरह खुली खुली है।





हमारे लब पे तबस्सुम ही देखने वालो

ग़मे जहां भी तबस्सुम में हम छुपाये हैं

हमारे बाद कोई गम की धूप में न जले

शजर यह सोच के हमने भी कुछ लगाये हैं

असर बहार का मौसम जो याद आया कभी

तो हम क़फ़स में बहुत देर फड़फड़ाये हैं


जामे मय आंखों को चेहरे को कमल लिखते रहे

उसकी सूरत देखकर हम भी ग़ज़ल लिखते रहे

सच तो ये है ग़ौर से जब तक उसे देखा न था

चांद को हम उसे चेहरे का बदल लिखते रहे

अपनी मंज़िल की तमन्ना में जो भटके उम्र भर

दूसरों की खुशनसीबी का वो हल लिखते रहे

मेरे आंगन में न उतरी एक पल भी चांदनी

लिखने वाले जाने क्या राशि के फल लिखते रहे


इश्क के बीमार को यारो शिफा होती नहीं

इस मर्ज़ में कारगर कोई दवा होती नहीं

शोर उठता है अगर पत्ते पे शबनम भी गिरे

शीशाए दिल टूट जाता है सदा होती नहीं


मौत को हम दुश्मने इन्सां समझते थे असर

ज़िन्दगी भी मार डालेगी यह अंदाज़ा न था