Sunday, December 4, 2011

दुखियारे सहते जाते और चोट चोटों पर

डाक्टर जी ए कादरी, अध्यक्ष फ़ारसी विभाग जी एफ़ कालेज ने हिन्दी में अमरबेल नाम के नाटक की रचना और उसका सम्पादन किया है. डाक्टर जी ए कादरी केवल साहित्यकार ही नहीं, इसके साथ एक अच्छे रंग कर्मी भी हैं.

Email: gaquadrigfc@gmail.com

प्रस्तुत रचना में एक आम घराने की कथा को नाटक का रूप दिया गया है. एक बूढा जो दमे का मरीज है, दवा की जगह गर्म पानी में नमक डाल कर पीता है. एक विधवा बेटी साथ रहती है. बेटे की नौकरी मिलने की आस में जीता है. जिस प्रकार मोटे पेडों को अमरबेल खा जाती है उसी प्रकार भूख और गरीबी की अमरबेल समाज के घरानों को खोखला कर देती है! शायद यही अमरबेल का सच है!

डाक्टर कादरी की दूसरी किताब डाक्टर ए अजीज अंकुर की काव्य रचनाओं का संकलन है.
उनकी शायरी के कुछ अंश देखिए:

गला काटकर झोंपडियों का
ऊंचे महल बनाये
ईशवर की माया ही कहलो
यहां धूप वहां साये
रूपों के बाज़ार सजे हैं
महलों के कोठों पर
पर दुखियारे सहते जाते
और चोट चोटों पर
रुन झुन कॊ आवाज महल से
बाहर तक आ जाती
पर आंसू की धार यहां
झोपडियों तक रह जाती

Sunday, June 5, 2011

नज़ीर अकबर आबादी

नज़ीर अकबर आबादी अवाम का शायर है. उसका ज़माना 1735 से 1830 ई. है. अट्ठारवीं शताब्दी में जो सियासी उथल पुथल जारी धी नज़ीर ने उसे अपनी शायरी के ज़रीये पेश किया है. उसके शेर आज भी प्रासांगिक हैं.

नहीं है जोर जिन्हों में वो कुशती लड़ते हैं
जो ज़ोर वाले हैं वो आप से पिछडते हैं
झपट के अंधे बटेरों के तईं पकड़ते हैं
निकले छातियां कुबड़े भी सब अकड़ते हैं
गरज़ मैं क्या कहूं दुनिया भी एक तमाशा है.

बनाके नयारिया ज़र की दुकान बैठा है
जो हुन्डीवाल था वो खाक छान बैठा है
जो चोर था सो वो हो पासबान हैठा है
ज़मीन फिरती है और आसमान बैठा है
गरज़ मैं क्या कहूं दुनिया भी एक तमाशा है.

ज़बां है जिसके, इशारे से वो पुकारे है
जो गूंगा है वो खड़ा फारसी बघारे है
कुलाह हंस की कौवा खड़ा उतारे है
उछल के मेंडकी हाथी के लात मारे है
गरज़ मैं क्या कहूं दुनिया भी एक तमाशा है.

अज़ीज़ जो थे हुए चश्म में सभों की हकीर
हकीर थे सो हुए हैं सब में साहिबे तौकीर
अजब तरह की हवाएं हैं और अजब तासीर
अचंभे खल्क के क्या क्या करूं बयां मैं नज़ीर
गरज़ मैं क्या कहूं दुनिया भी एक तमाशा है.

Tuesday, May 31, 2011

ग़ालिब की दिल्ली में.

एक खत में गालिब ने लिखा था:
"...रोज़ इस शहर में एक नया हुक्म होता है. कुछ समझ में नहीं आता है कि क्या होता है. मेरठ से आकर देखा कि यहां बड़ी शिद्दत है और हालत है कि गोरों की पासबानी पर क़नाअत नहीं है. लाहौरी दरवाज़े का थानेदार मोढा बिछाकर सड़क पर बैठता है, जो बाहर से गोरे की आंख बचाकर आता है उसको पकड़्कर हवालात में भेज देता है. हाकिम के यहां से पांच पांच बेत लगते हैं या दो रूपये जुर्माना लिया जाता है, आठ दिन कैद रहता है. इसके अलावा सब थानों पर हुक्म है कि दरयाफ़्त करो कौन बे टिकट मुकीम है और कौन टिकट रखता है. थानों मे नक्शे मुरत्तब होने लगे. यहां का जमादार मेरे पास भी आया. मैंने कहा भाई तू मुझे नक्शे में न रख. मेरी कैफ़ियत की इबारत अलग लिख. इबारत यह कि असदुल्ला खां पेन्शनदार 1850 ई से हकीम पटियाले वाले के भाई की हवेली में रहता है. न कालों के वक्त में कहीं गया न गोरों के ज़माने में निकला और न निकाला गया. कर्नल ब्राउन साहब बहादुर के ज़बानी हुक्म पर उस्की अकामत का मदार है. अब तक किसी हकिम ने वह नहीं बदला. अब हाकिमे वक्त को इख्तियार है. परसों यह इबारत जमादार ने मोहल्ले के नक्शे के साथ कोतवाली में भेज दी.
कल से यह हुक्म निकला कि यह लोग शहर से बाहर मकान या दुकान क्यों बनाते है.जो मकान बन चुके हैं उन्हें ढा दो और आइन्दा को मुमानियत का हुक्म सुना दो. और यह भी मश्हूर है कि पांच हज़ार टिकट छापे गये हैं. जो मुसलमान शहर में अकामत चाहे बकदर मकदूर उसका अंदाज़ा करार देना हाकिम की राय पर है. रुपया दे और टिकट ले घर बर्बाद हो जाये आप शहर में आबाद हो जाये. आज तक यह सूरत है, देखिये शहर की बस्ती की कौन महूरत है. जो रहते हैं वह भी इख्र्राज किये जाते हैं या जो बाहर पड़े हुए हैं वह शहर में आते हैं......"

यह खत 1857 के ज़माने का है. दिल्ली पर कब्ज़ा करने के बाद सरकारी टिकट छापे गये और फ़ीस लेकर लोगों को शहर में आबाद किया गया. बगैर इजाज़त अगर कोई शहर में आता था तो बेंत पड़ते थे या जुर्माना भरना पडता था.

Sunday, May 29, 2011

एक खत ग़ालिब का दिल्ली के बारे में

गालिब लिखते हैं:

".....बरसात का नाम आ गया पहले सुनो- एक गदर कालों का, एक हंगामा गोरों का, एक फ़ितना इन्हिदाम मकानात का, एक आफ़त वबा की, एक मुसीबत काल की, अब यह बरसात जमी हालात की जामे है. आज इक्कीसवां दिन है, आफ़ताब इस तरह नज़र आ जाता है जिस तरह बिजली चमक जाती है. रात को कभी कभी अगर तारे दिखाई देते हैं तो लोग उनको जुगनू समझ लेते हैं. अंधेरी रातों में चोरों की बन आई है. कोई दिन नहीं कि दो चार घर की चोरी का हाल न सुना जाये. मुबालग़ा न समझना हज़ारहा मकान गिर गये. सैंकड़ों आदमी जा-ब-जा दबकर मर गये. गली गली नदी बह रही है. किस्सा मुख्तसर वह अन्न काल था कि मेंह न बरसा अनाज न पैदा हुआ, यह पन काल है, पानी ऐसा बरसा कि बोये हुए दाने बह गये. जिन्होंने अभी नहीं बोया था वह बोने से रह गये. सुन लिया दिल्ली का हाल ? इसके सिवा कोई नई बात नहीं है जनाब मीरन साहब को दुआ, ज़्यादा क्या लिखूं."

और कुछ शेर कई कवियों के


मेरी आह्ट पाके वह चिल्लाके बोले कौन हो
हड़्बड़ाया मैं कि मैं हूं मैं हूं सरकार आदमी

ज़माने को क्या क्या दिया देने वाले
हमें तूने टरखा दिया देने वाले
ज़माने को तोपें भी दीं मालो-ज़र भी
हमें तूने चरखा दिया देने वाले

नई हदबन्दियां होने को हैं आईने गुल्शन में
कहो बुलबुल से अब अन्डे न रखे आशियाने में

सर्राफ़ कसौटी पे घिसा करते हैं ज़र को
हम वो हैं जो आंखों से परखते हैं बशर को
इन चारों को जादूए सितम देखा है फ़खरू
एक हुस्न को आवाज़ को दौलत को हुनर को

चला जाता हूं हंसता खेलता मौजे हवादिस से
अगर आसानियां हों ज़िन्दगी दुशवार हो जाए

यहां कोताहिये ज़ौक़े अमल है खुद गिरफ़्तारी
जहां बाज़ू सिमटते हैं वहीं सय्याद होता है

Thursday, March 3, 2011

मैय्या अब मत लोरी गाओ

डाक्टर कमर रईस

मैय्या अब मत लोरी गाओ
सो सो कर हलकान हुए हम
बे-हिस और बेजान हुए हम
इल्मो-हुनर तदबीर तअक्कुल
हर शै से अंजान हुए हम

किसने डसा है कैसा नशा है ?
मन्तर इस काटे का लाओ

मैय्या अब मत लोरी गाओ

अरब हो या अफ़ग़ानिस्तान
असहाबे कहफ़ सब सोते हैं
हम जो सगाने ख्वाब ज़दा हैं
नींद में अक्सर रोते हैं

कैसा हम पर वक़्त पड़ा है
कोई झंझोड़ो कोई जगाओ

मैय्या अब मत लोरी गाओ

ज़हनों पर लरज़ा तारी है
सोचना भी खुद आज़ारी है
अंदर हो या बाहर कब से
भूतों का तान्डव जारी है

हर सू वह्शत-नाक अंधेरा
कोई तो एक दिया जलाओ

मैय्या अब मत लोरी गाओ

तन की शिरयानों में जैसे
भागते गीदड हांप रहे हैं
दो पैरों पर दौड़ने वाले
चौपाये बन कांप रहे हैं

बाज़ू शल हिम्मत दरमान्दा
तूफ़ानों में घिरी है नाओ

मैय्या अब मत लोरी गाओ

बर्क़ सी दौड़ादे जो बदन में
फ़िकरो-अमल को जो शहपर दे
आंखों में सपनों को सजाये
हाथों को तौक़ीरे हुनर दे

सदियों तक जो नींद उड़ादे
ऐसी एक झकझोरी गाओ

मैय्या अब मत लोरी गाओ

Wednesday, January 26, 2011

जिसे एडमीशन कराना हो जल्दी रजेस्ट्रेशन कराए

चच्चा बोले एक नया स्कूल खुला है. अखबार में एड छपा है कि जिसे एडमीशन कराना हो जल्दी रजेस्ट्रेशन कराए.
मैने पूछा क्या आप ने रजेस्ट्रेशन कराया ?
बोले मैं गया था अपने पड़ोसी छुटकू के लिये. स्कूल वालों ने पूछा कि इसका बप क्या करता है. मैंने कहा मज़दूरी !
कहने लगे क्यों मज़ाक़ करते हो. जानते हो कि यह सेन्ट सी एल कानवेन्ट स्कूल है. यहां की पढ़ाई हाई फ़ाई इंगलिश है. जिस बच्चे के घर पर अच्छा माहौल न हो वह यहां क्या पढेगा और घर पर क्या सीखेगा. बस का किराया, फ़ीस, सब मिलाकर हज़ारों रूपये का खर्च है. आप छुटकू को किसी सरकारी स्कूल में क्यों नहीं डालते ?
मैने कहा वहां पढ़ाई से ज़्यादा खाने पर ध्यान है.
बोले यह तो और अच्छा है. पेट भी भरेगा, वक़्‍त भी कटेगा.
किताबें फ़्री, खाना फ़्री, फ़ीस नहीं, फिर भी कोई पढ़ना न चाहे तो सरकार क्या करे ?
चच्चा बोले मैं झुंझलाकर चला आया.
बाद में पता किया कि यह संत (सेंट) सी एल महाशय कौन थे जिनके नाम पर स्कूल खुला है. मालूम हुआ कि छेदालाल नाम का एक व्यक्‍ति चाट पकौड़े बेचा करता था. उसके मरने के बाद लड़कों ने जोड़ तोड़ करके स्कूल खड़ा कर दिया. छेदालाल का सी एल लेकर पिताजी को संत की पदवी देदी. कानवेंट के लिये सेंट ज़ारूरी था इसलिये पिताजी संत भी हो गये.
चच्चा बोले अच्छा आइडिया है. अब मैं भी सेंट बन जाऊंगा और स्कूल खोलूंगा. सेंट सी सी ( संत चच्चा चंगू) कान्वेन्ट स्कूल !
मैने कहा कान्वेन्ट में फ़ादर भी होते हैं फ़ादर कहां से लाएंगे ?
चच्चा बोले मैं खुद पिताजी का किरदार निभाऊंगा. मैंने कहा और मदर.........?
चच्चा गहरी सोच में डूब गये.