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Saturday, September 23, 2023

दिल्ली

 दिल्ली आ गयी।

नीचे बर्थ पर बैठे किसी शख्स ने कहा।

मीना अपनी बर्थ पर उठ बैठी। सुबह हो गयी थी। ट्रेन में कुछ लोग अभी कम्बल ताने सो रहे थे। कुछ वाशरूम की तरफ जा रहे थे तो कुछ रात के बिखरे बिस्तर से अपना सामान समेटकर इकट्ठा कर रहे थे.

मीना और उसके साथी जो सभी छात्र, छात्राएं थे और दिल्ली देखना चाहते थे एक टूर पर निकले थे। उनका सम्बंध पूर्वी उत्तर प्रदेश और उससे लगे बिहार के बार्डर के इलाकों से था। मीना, सीमा, साहिल और टोनी यह सभी दोस्त थे। टोनी पहले ही जाग चुका था और साफ सुथरा होकर बालों में कंघा कर रहा था। मीना ने सीमा और साहिल को आवाज दी - दिल्ली आ गयी  है अब तो उठ जाओ। तुम लोग रात बहुत देर से साए थे.

ट्रेन जमना के पुराने पुल में दाखिल हो चुकी थी। वह पटरियों पर खटपट की धुन बजाती धीमी गति से चल रही थी। सामने लाल किले की दीवार नजर आ रही थी। नीचे जमना नदी बड़ी सुकड़ी सिमटी लग रही थी। एक तो जमना काली ऊपर से दिल्ली की बस्तियों का पाप ढोते हुए और काली हो चुकी थी। उसमें कूड़ा कचरा साफ नज़र आ रहा था। जमना की सफाई पर करोड़ों रूपये व्यय किये जा चुके थे लेकिन लोग हैं कि मानते नहीं।

लो भई आ गयी पुरानी दिल्ली! साहिल ने कहा और अपना बिस्तर समेटने लगा.

लेकिन दिल्ली पुरानी कब हुयी? वह तो सदा जवान थी। शहर कभी बूढ़े नहीं होते, बूढ़े होते हैं आदमी! औरतें और शहर सदा जवान रहते हैं. औरत और शहर दोनों में एक समानता है। दोनों रात में सुंदर लगते हैं। कहते हैं किसी शहर की सुंदरत देखना हो तो रात में देखो। 

1867 में दिल्ली रेलवे लाइन का उद्घाटन किया गया था। इस समारोह में दिल्ली के बड़े नामवर लोग मौजूद थे। मिर्जा गालिब को भी बुलाया गया था। उन्होंने इस पर एक शेर कहा थाः

आया था वक्त रेल के खुलने का भी करीब

इस घटना से दस साल पहले 1857 में दिल्ली एक तूफान से गुजर चुकी थी जिसने ब्रिटिश शासन को और मजबूत कर दिया था। रही सही नाम की देसी हुकूमतें समाप्त हो गयी थीं। लाल किले में बहुत तोड़ फोड़ की गयी थी। अन्दर की बहुत सी इमारतें गिरा दी गयी थीं। लाल किले की दीवार से लगी घनी आबादी थी जहां तरह तरह के काम करने वाले कारीगरों के मकान थे। वह सब गिराये गये और दूर दूर तक मैदान कर दिया गया। कितने ही लोग मारे गये और फांसी पर चढ़ा दिये गये। दिल्ली वीरान हो गयी। दिल्ली की इसी बर्बादी पर मिर्जा गालिब के शागिर्द हाली ने कहा थाः

दाग़ सीने पे लेके आयेगा बहुत ऐ सययाह

देख इस शहर के खंडहरों में न जाना हरगिज़

चप्पे चप्पे हैं यहां गौहरे यकता तहे खाक

दफन होगा कहीं इतना न खजाना हरगिज़

तज़करा मरहूम दिल्ली का ऐ दोस्त न छेड़

सुना जाएगा हमसे न यह फ़साना हरगिज़

 

ट्रेन प्लेटफार्म पर लग चुकी थी। वह सब नीचे उतरे। हर किसी को नीचे उतरने की जल्दी थी। ज़िन्दगी बड़ी भागम-भाग में थी। स्टेशन से बाहर निकलते ही टेक्सी टेम्पो वाले उनके पीछे पड़ गये कहां जाना है साहब?

साहिल ने सीधा मेटरो का रूख किया। दिल्ली को भीड़ से बचाने के लिए मेटरो चलायी गयी थी। मेटरो के स्टेशन भी भीड़ भरे थे। खूबसूरत लड़के लड़कियां हाथ में हाथ डाले मेटरो में जा-आ रहे थे। दिल्ली में हसीन चेहरों नये फ़ैशन के लिबास और हुस्न की नुमायश को जो देखा तो ऐसा लगा कि दिल्ली सिमटकर एक तस्वीर में बदल गयी हैः

 

दिल्ली से जो कूचे थे, औराक-ए मुसव्विर थे

जो चीज नजर आयी तस्वीर नजर आयी

 

होटल के कमरे में आराम करने के बाद वे सब दिल्ली घूमने के लिए निकल पड़े। उनकी मंज़िल लाल क़िला था। ट्रेन मैं बैठे दूर से उसे देख चूके थे। उसकी कहानियां सुनी थीं, अब पास से देखने की तमन्ना थी.

एक तरफ लाल किला था बीच में एक नहर थी जो बाद में सडक बना दी गयी और चांदनी चैक का बाजार बन गया। इसी चांदनी चैक के दूसरे सिरे पर मस्जिद फ़तहपुरी थी।

यहीं दरीबा कलां था जहां दमदम जानी की मिठाई की दुकान थी। उनका हल्वा पराठा मशहूर था। लोग दूर दूर से मीठा खाने आते थे और दमदम जानी के शेर सुनते। उन्हें शेरों का चस्का था। उन्होंने कभी दावा नहीं किया कि वह शायर हैं लेकिन बहुत से शायरों के शेर उन्हें याद थे। दिन में लोगों को मीठा खिलाते, मीठा बोलते और रात को मुशायरों या निजी शेरी महफ़िलों में शिरकत करते। वह तो यह भी कहते थे कि मैं लाल क़िले के मुशायरे में जाता हूं ओर मोमिन और गालिब का कलाम सुनता हूं.

मीना और उसके साथी चांदनाी चैक की खूबसूरती और इमारतें देखते हुए पैदल ही चल रहे थे। अगर शहर को देखना हो तो पैदल चलने से बेहतर कोई तरीका नहीं है। वह मोबाइल से तस्वीरें उतारते और आगे बढ़ जाते। दमदम जानी की दुकान पर देखा तो दमदम जानी उन्हें कुछ अजीब से नज़र आये। वही पुराना स्टाइल बड़ी दाढ़ी, कुर्ता पायजामा और टोपी जैसे पुरानी दिल्ली का पुराना बाशिन्दा अभी ज़िन्दा हो। और उनका ग्राहकों से बोलने का अंदाज़ः

बात करने में जो लहजा जो बयां है मेरा

जो तसव्वुर जो तख्ययुल जो गुमां है मेरा

मीर-ओ-ग़ालिब के जो अशआर पढ़ा करता हूं

दाएं से बाएं को अल्फ़ाज़ लिखा करता हूं

मेरी गुफतार में जो तर्ज़-ए ग़ज़ल शामिल है

मेरे किरदार में जो रंगे रूख़-ए बिस्मिल है

 

वह सब दमदम जानी की दुकान में चढ़ गये। भूख भी लग रही थी। गर्म हल्वे और पराठे की सुगंध उड़ रही थी। दमदम जानी ने जो इन लोगों को देखा उनकी तरफ़ मुख़ातिब हुएः

 

वह आये हमारे घर में खुदा की क़ुदरत है

कभी हम उनको कभी अपने घर को देखते हैं

चाचा जी क्या आप शायर हैं सीमा ने पूछा.

हूं भी और नहीं भी। मैं एक गुमनाम सा, अंजान सा शायरों का ख़ादिम हूं। शेर पढ़ता और गुनगुनाता हूं। मुशायरों में जाता हूं और कलाम सुनता हूं। उन्होंने कहा.

मुशायरे का नाम सुनकर वह सब चैंके। यहां मुशायरा कहां होता है ?

लाल क़िले में.

लाल क़िले में सबने पूछा.

हां.

लेकिन वह जश्ने आज़ादी के मौक़े पर साल में एक बार होता है। सुना है बड़े बड़े शायर बुलाये जाते है। मैंने टीवी पर देखा है। मीना ने कहा।

तुम लोग कहां से आये हो? दमदम जानी ने पूछा।

तब तक गर्म हल्वे और पराठे की प्लेटें सबके सामने लग चुकी थीं। जी नोश फरमाइये.

सब खाने लगे। हल्वा मज़ेदार था। उसका स्वाद विशेष था। सुगंध भी बहुत अच्छी थी। टोनी ने कहा लगता है लाल क़िले में बैठे शाही हल्वा खा रहें है.

हम सभी कालेज के स्टूडेंट है। दूर लखनऊ की तरफ से आये हैं, दिल्ली घूमने.

अभी तुम लोग कहां जाओगे? दमदम जानी ने पूछा.

अभी हमारा इरादा लाल क़िला घूमने का है। चांदनी चैक की सैर करेंगे। लाल क़िला देखेंगे, कुछ खरीदारी करेंगे, कुछ खाए पिएंगे और मस्ती करेंगे.

दमदम जानी ने कहा मैं रात क़िले में गया था। अच्छा मुशायरा हुआ था। दिल्ली के सभी बड़े शायर जमा हुए थे। ऐसे मौक़े बार बार नहीं आते। वह तो मेरी क़िस्मत अच्छी थी कि मुझे ऐन मौक़े पर मुशायरे का पता चल गया।

वह सब हैरत से एक दूसरे का मुंह देख रहे थे.

मेरा इरादा आज भी लाल क़िला जाने का है। लेकिन मैं दोपहर के बाद जाउंगा। मैं अभी दुकान का इंतेजाम करूंगा। यह नौकर भुन्दू कुछ संभाल नहीं पायेगा। यह अपनी धुन में मस्त रहता है। कुछ कह दो तो बड़बड़ाना शुरू कर देता है या पुराना सा शेर पढ़ देता है।

दमदम जानी ने नौकर को आवाज़ दी.

मियां भुन्दू मुझे दोपहर बाद क़िला जाना है। तुम ज़रा दुकान का ध्यान रखना। देखना कहीं पिनक में मस्त न हो जाना.

ठीक है मियां। ख़ातिर जमा रखें। भुन्दू ने कहा। फिर मुंह ही मुंह में बुदबुदाने लगाः

 

यह जो धुआं सा उठता है

आग भी होगी जहां उठता है

है दिल के पहलू में एक दिल भी ज़रूर

एक से ग़म यह कहां उठता है

000000

Sunday, May 29, 2011

एक खत ग़ालिब का दिल्ली के बारे में

गालिब लिखते हैं:

".....बरसात का नाम आ गया पहले सुनो- एक गदर कालों का, एक हंगामा गोरों का, एक फ़ितना इन्हिदाम मकानात का, एक आफ़त वबा की, एक मुसीबत काल की, अब यह बरसात जमी हालात की जामे है. आज इक्कीसवां दिन है, आफ़ताब इस तरह नज़र आ जाता है जिस तरह बिजली चमक जाती है. रात को कभी कभी अगर तारे दिखाई देते हैं तो लोग उनको जुगनू समझ लेते हैं. अंधेरी रातों में चोरों की बन आई है. कोई दिन नहीं कि दो चार घर की चोरी का हाल न सुना जाये. मुबालग़ा न समझना हज़ारहा मकान गिर गये. सैंकड़ों आदमी जा-ब-जा दबकर मर गये. गली गली नदी बह रही है. किस्सा मुख्तसर वह अन्न काल था कि मेंह न बरसा अनाज न पैदा हुआ, यह पन काल है, पानी ऐसा बरसा कि बोये हुए दाने बह गये. जिन्होंने अभी नहीं बोया था वह बोने से रह गये. सुन लिया दिल्ली का हाल ? इसके सिवा कोई नई बात नहीं है जनाब मीरन साहब को दुआ, ज़्यादा क्या लिखूं."

और कुछ शेर कई कवियों के


मेरी आह्ट पाके वह चिल्लाके बोले कौन हो
हड़्बड़ाया मैं कि मैं हूं मैं हूं सरकार आदमी

ज़माने को क्या क्या दिया देने वाले
हमें तूने टरखा दिया देने वाले
ज़माने को तोपें भी दीं मालो-ज़र भी
हमें तूने चरखा दिया देने वाले

नई हदबन्दियां होने को हैं आईने गुल्शन में
कहो बुलबुल से अब अन्डे न रखे आशियाने में

सर्राफ़ कसौटी पे घिसा करते हैं ज़र को
हम वो हैं जो आंखों से परखते हैं बशर को
इन चारों को जादूए सितम देखा है फ़खरू
एक हुस्न को आवाज़ को दौलत को हुनर को

चला जाता हूं हंसता खेलता मौजे हवादिस से
अगर आसानियां हों ज़िन्दगी दुशवार हो जाए

यहां कोताहिये ज़ौक़े अमल है खुद गिरफ़्तारी
जहां बाज़ू सिमटते हैं वहीं सय्याद होता है