Saturday, September 23, 2023

दमदम जानी

दमदम जानी ने लम्बा कुर्ता पहना, घेरदार पायजामा और सलीम शाही जूतियां पैरों  में डालीं। सज संवरकर उन्होंने खुद पर एक नजर डाली, फिर आईने के सामने खड़े हुए, जिसके किनारे पर सोने की बेल बनी हुई थीं। ये आईना बहुत खास था। कहते हैं कि ईरान के बादशाह ने शाह आलम को भेंट किया था और बदले में उनसे हीरों जड़ी कुर्सी हासिल की थी। ये आईना आखिरी सल्तनत की आखिरी निशानी था। दमदम जानी के बुजुर्ग बादशाहों के मंसबदार रहे थे। उनके घर में ऐसी बहुत सी पुरानी चीजें थीं जो किसी म्यूजियम में रखी जा सकती थीं। शाही पेशकब्ज, जिसपर सुनहरे अक्षरों में बादशाह का नाम लिखा था। एक पुरानी चमड़े की जिल्द वाली किताब जो फारसी भाषा में थी और जिसमें खूबसूरत तस्वीरें बनी थीं। एक पुरानी पगड़ी जिसका रंग कभी सुनहरा रहा होगा लेकिन अब काला पड़ने लगा था।  

उनका जब मन करता वह शाही लिबास पहनकर आईने के सामने खड़े हो जाते। कुर्ते पर फ़रगल पहनकर उसपर एक चमड़े की पेटी बांधते और उसमें पेशकब्ज लगाते। लेकिन जब तक सर पर शाही पगड़ी नहीं रखते उनका दिमाग काम नहीं करता था। पुरानी पगड़ी सर पर रखकर जब वह आईने के सामने खड़े होते और खुद को देखते तो उन्हें ऐसा लगता जैसे वह बादशाह के दरबार में खड़े हैं और पुरानी यादें सजीव होकर उनके चारों ओर मंडराने लगी हैं।

आईना कद्दे आदम था जिसमें पूरी तस्वीर दिखाई देती थी। उसके सामने एक पुराना दीवान पड़ा था। दिल्ली के पतन के बाद, जब दिल्ली में लुट्टस पड़ी और लोग अंग्रेजी सेना से बचने के लिए इधर उधर भागे तो ये दीवान दमदम जानी के पर-दादा को ख्वाजा हफ़्त हजारी संभालकर रखने को दे गये थे। कहा था, सही सलामत बच गये तो बुजुर्गों की एक निशानी तो बची रहेगी। लेकिन ख्वाजा हफ़्त हजारी फिर वापस नहीं लौटे। पता नहीं अंग्रेजों की गोली का शिकार हुए या तिलंगों के हाथों मारे गये।

जब भी दमदम जानी का दिल घबराता तो वह पुराने शाही कपड़े पहन, शाही पगड़ी सर पर रख, शाही तलवार कमर में लगा, पेशकब्ज़ पेटी में खोंसकर आईने के सामने खड़े हो जाते। सोचते कि उनके बुजुर्ग कैसे रहे होंगे, जिन्होंने एक शानदार शासन की स्थापना की थी। क्या ज़माना था जब इत्मीनान हासिल था। न आज के झगड़े, झंझट और टेंशन। न नींद की गोलियां, डिप्रेशन की दवाएं, ब्लड प्रेशर घटने, बढ़ने का धड़का, और न शकर घटने, बढ़ने का चक्कर। पहले मीठा बोलते थे और मिठास बांटते थे, अब कड़वा जहर उगल रहे रहे हैं और उंगलियों में सूइयाँ चुभोकर मिठास नाप रहे हैं।

शेर उन्हें बहुत याद थे। खुद भी शायरी करते थे लेकिन किसी को बताया नहीं। कहते थे, मियां अब शायरी का ज़माना कहां है? खलील खां चले गये जो फाख्ता उड़ाते थे। लेकिन बिना बताए भी लोग समझते थे की दमदम जानी शायर जरूर है, जभी तो उन्हें इतने शेर याद हैं।

आईने में खुद को निहारकर उन्होंने हाथ में पुरानी चर्मी जिल्द वाली किताब ली और दीवान पर बैठकर उसके पन्नों को टटोलने लगे। एक तस्वीर में लाल किले में मुशायरा हो रहा था। दमदम जानी ने उस तस्वीर को देखा तो वह उसमें खोते चले गये।

 लाल किले के दीवाने आम में रात का सन्नाटा छाया हुआ था। पहरेदार सब सो चुके थे। अगहन मास की चांदनी पेड़ों से छन छनकर आ रही थी। दिल्ली शहर सो रहा था। लेकिन लाल किले के दीवाने आम में आज कुछ हलचल थी। वहां एक भीड़ सी जमा थी। लेकिन सब खामोश थे। अपने अपने लबादों में लिपटे लिपटाये बैठे थे, और इस इन्तिजार में थे देखें क्या हुक्म होता है। आज की महफिल दमदम जानी ने सजायी थी। बड़ी मिन्न्त की थी तब यह सारे लोग इकट्ठा हुए थे।

इस किले को मुगल बादशाह शाहजहां ने दिल्ली में जमना के किनारे बनवाया था। शाहजहां को इमारतें बनवाने का बड़ा शौक था। दो इमारतों के लिए उसने जमना का किनारा पसंद किया था। एक ताजमहल और दूसरा लाल किला। शाहजहां ने राजधानी आगरा से दिल्ली तब्दील की थी। अकबर के जमाने तक राजधानी आगरा रही क्योंकि अप्रैल 1526 में इब्राहीम लोदी को हराने के बाद जहीरुद्दीन बाबर ने आगरा पर अधिकार किया था। उसकी हुकूमत आगरा से चलती रही।

मुगलों के शासन से पहले कुतबुद्दीन एबक ने दिल्ली को राजधानी करार दिया था। उसने दिल्ली की महत्ता को समझ लिया था। दिल्ली से लाहौर से लेकर गजनी और समरकन्द, तक नजर रखी जा सकती थी और दूसरी तरफ राजपूताना से कश्मीर तक। कुतबुद्दीन एबक को लाहौर बहुत पसंद था और उसका शासन दिल्ली और लाहौर से चलता रहा। लाहौर में ही 1210 ई में चौगान खेलते हुए घोड़े से गिरकर कुतबुद्दीन एबक की मृत्यु हो गयी थी।

उसकी दूरदर्शी निगाहों ने समझ लिया था कि इस देश के लिए अगर कोई बेहतर राजधानी हो सकती है वह दिल्ली ही हो सकती है। दिल्ली सल्तनत ने पहली बार केन्द्रीय शासन के महत्व को समझा। उसने इस देश के लिए एक केन्द्रीय शासन स्थापित किया। इससे पहले यहां राज करने वाले राजाओं, महाराजाओं की अपनी सीमाएं थीं। सत्ता का एक केन्द्र नहीं था। इन राजाओं में सत्ता के लिए सीमाओं पर संघर्ष होता रहता था। दिल्ली जब शासन का केन्द्र बना और दिल्ली सल्तनत परवान चढ़ने लगी तो शायर, लेखक, सूफी, फकीर, कारीगर चारों ओर से सिमटकर दिल्ली में इकट्ठा हो गये। इमारतें बनायी जाने लगीं, सूफी परम्परा आगे बढ़ी, शायरी की जाने लगी और इतिहास को संजोया जाने लगा।  

शाहजहां ने भी दिल्ली के महत्व को समझा। उसने ताजमहल के रूप में एक निशानी आगरा में छोड़ी और लाल किले की एक यादगार दिल्ली में स्थापित की। बाद में अंग्रेजी हुकूमत भी दिल्ली से ही चलती रही। उन्होंने जमाने की जरूरत को देखते हुए पुरानी दिल्ली की तंग गलियों को छोड़कर दिल्ली में ही शासन का नया केंद्र नयी दिल्ली स्थापित किया। वह इमारतें बनवायीं जो शासन का केंद्र हैं।  

आज की रात कुछ पुराने, कुछ नये अदीब और शायर, दिल्ली के पुराने वासी इकट्ठा हुए थे। तय हुआ था कि वर्षों बीत गये, कोई अदबी महफिल नहीं सजी। जमाने ने बहुत करवटें बदली, जमना में बहुत पानी बह गया। वह आवाज़ें जिनको सुनने को कान तरस गये आज फिर से गूंजेंगी। मुशायरा होगा और खूब होगा। लेकिन तरीका वही पुराना होगा। सब शायर और सुनने वाले चुपचाप बैठेंगे, कोई दाद का शोर और वाह वाह का हंगामा नहीं होगा। जिसके सामने शमा लायी जायेगी वही कलाम पढ़ेगा।

इस मुशायरे का न कोई सदर होगा न कोई संचालक। किसी की शान में कसीदा नहीं पढ़ा जायेगा। बस जिसके सामने शमा रख दी जाए वह कलाम सुनाना शुरू कर दे।

शमा जलाने, शमा बुझाने और उसे हर एक शायर के सामने रखने का जिम्मा दमदम जानी ने अपने सर लिया। वह शायरी के शौकीन थे। दरीबा कलां में हलवा बेचा करते थे। दिन में हलवा बेचते, मीठी बातें करते और रात को मुशायरों में शिरकत करते। अपने घर पर भी मुशायरे कराते थे। उन्हें बहुत से शायरों का कलाम जबानी याद था। थोड़ी बहुत शायरी भी करते थें। जब वह शेर पढ़ते लोग समझते कि यह उन्हीं का शेर है। यह सुनने वाले पर था कि वह शेर पर सर धुने या वाह वाह करे। उनका काम था शेर पढ़ना और अलग हो जाना।

दमदम जानी ने शमा रोशन की। एक शायर जो फरग़ल में लिपटे हुए उंची टोपी लगाए बैठे थे उनके सामने रख दी। शमा तेज़ लौ से जल रही थी और उसकी लौ से धुआं सा उठ रहा था.

वह शायर यूं गोया हुएः

बूए गुल, नाला-ए दिल, दूदे चराग़े महफिल

जो तेरी बज्म से निकला सो परेशां निकला

लोग देखने लगे कि यह शायर कौन हैं। तभी उन्होंने पढ़ाः

रात दिन गर्दिश में हैं सात आसमां

हो रहेगा कुछ न कुछ घबराएं क्या

पूछते हैं वह कि ग़ालिब कौन है

कोई बतलाओ कि हम बतलाएं क्या

अच्छा तो यह मिर्ज़ा नौशा हैं। पहले असद तख़ल्लुस करते थे। अब ग़ालिब नाम रखा है। एक बूढ़े शायर ने कहा।

पास में बैठा शख्स बोला – मियां लोग कहते हैं कि इनका कहा यह खुद समझें या खुदा समझे।

उन्होंने आगे पढ़ा:

आशिकी सब्र तलब और तमन्ना बेताब

दिल का क्या रंग करूं खूने जिगर होने तक

हमने माना कि तगाफुल न करोगे लेकिन

खाक हो जाएंगे हम तुमको खबर होने तक

गमे हस्ती का असद किससे हो जुज मर्ग इलाज

शमा हर रंग में जलती है सहर होने तक

शमा आगे बढ़ाई गयी। एक बूढ़े शायर थे। बड़ा सा चेहरा, घनी दाढ़ी जो सफ़ेद हो चुकी थी। बड़ा घेरदार पायजामा, लम्बा कुर्ता, उस  पर अचकन, और कमर पर कई गज़ रेशमी कपड़े का पटका बंधा हुआ। लोग देखने लगे कि ये कौन हैं:

उनहोंने अपना कलाम पढ़ना शुरू किया:

उलटी हो गयीं सब तदबीरें, कुछ न दवा ने काम किया

देखा इस बीमारी-ए दिल ने आखिर काम तमाम किया

 

अहद-ए जवानी रो-रो काटा, पीरी में लीं आंखें मूँद

यानी रात बहुत थे जागे, सुब्ह हुई आराम किया

 

नाहक हम मजबूरों पर ये तोहमत है मुख्तारी की

चाहते हैं सो आप करे हैं हमको अबस बदनाम किया

 

यां के सपेद-ओ सियाह में हमको दखल जो है सो इतना है

रात को रो-रो सुब्ह किया या दिन को जूं-तूं शाम किया

                                                        

मीर के दीन-ओ मज़हब को अब पूछते क्या हो उनने तो

कशका खैंचा, दैर में बैठा, कबका तरक इस्लाम किया

 

यह गजल बहुत पसंद की गयी। एक और गजल की फर्मायश हुई। मीर ने पढ़ा:

 

याद उसकी इतनी खूब नहीं मीर बाज आ

नादान फिर वह जी से भुलाया न जाएगा

 

सख्त काफिर था जिनने पहले मीर

मजहब-ए इश्क अख्तियार किया

 

देख तो दिल कि जां से उठता है

ये धुआं सा कहां से उठता है

 

गरचे जुर्म-ए इश्क गैरों पर भी साबित था वले

कत्ल करना था हमें, हम ही गुनहगारों में थे

  

मुझको शायर न कहो मीर कि साहब मैंने

दर्द-ओ गम कितने किये जमा सो दीवान किया

 

कुछ मौज-ए हवा पैचाँ ऐ मीर नजर आयी

शायद कि बहार आयी, ज़ंजीर नजर आयी

दिल्ली के न थे कूचे, औराक-ए मुसव्विर थे

जो शक्ल नजर आयी, तस्वीर नजर आयी

 

लोग कहने लगे इस शायर को दिल्ली से बहुत प्यार है। ये वही शायर मीर तक़ी मीर हैं। इनके बारे में ही ग़ालिब ने कहा है:

रेख्ता के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो ग़ालिब

अगले ज़माने में कोई मीर भी था

मीर ने ग़ज़ल की जो बुनियाद डाली उसे रेख़्ता कहा गया। इस भाषा में बिखराव था, फैलाव था, इसे बहुत से लोग समझ सकते थे। ये आसान थी, इसमें उल्झाव नहीं था। मीर का ये तर्ज़ बहुत पसंद किया गया.

मीर ने आगे पढा:

 

क्या बूद-ओ-बाश पूछो हो पूरब के साकिनो

हमको ग़रीब जान के हंस-हंस पुकार के

दिल्ली जो एक शहर था आलम में इंतिखाब

रह्ते थे जहां मुंतखिब ही रोज़गार के

उसको फ्लक ने लूटके वीरान कर दिया

हम रहने वाले हैं उसी उजड़े दयार के

 

मीर ने इश्क की चोट दिल पर खायी थी। उन्होंने ऐसा इश्क़ किया कि होश-ओ-हवास जाते रहे। चांद की तरफ देखते तो चांद में महबूब का चेहरा नज़र आता:

 

मीर क्या सादे  हैं बीमार हुए जिसके सबब

उसी अत्तार के लौंडे से दवा लेते हैं

 

ये शेर सुनते ही बहादुर शाह ज़फर के मुंह से एक आह निकली। वाह मीर साहब ! क्या नश्तर मारा है, सीधा जिगर के पार हो गया.

 

मीर अपनी धुन में आगे गोया हुए:

मीर इन नीमबाज़ आंखों में

सारी मस्ती शराब की सी है

नाज़ुकी उसके लब की क्या कहिये

पंखडी एक गुलाब की सी है

माहौल पर रंग चढने लगा था। जामे-मय के रसिया कसमसाने लगे थे। बेहतरीन शाराब पुर्तगाल से आती थी। लोग बोतलें खरीद कर फलों की टोकरी में ऊपर नीचे घास फूस डालकर मज़दूर के सर पर रखवा देते। और उसे हिदयत देते: मियां ज़रा आहिस्ता, ये नाज़ुक शीशा-ए-दिल है, ज़रा ठेस लगी और फूटा।

दिल्ली कई बार उजड़ी और वीरान हुई। कभी तैमूरी आंधी आयी, कभी सुनहरी मस्जिद में तलवार निकालकर नादिर शाह दुर्रानी ने ‘बि-ज़न’ बोला और दिल्ली खून में नहा गयी। कभी राजधानी दिल्ली से दौलताबाद ले जायी गयी तो दिल्ली में कुत्ते और कौए तक भाग गये। ऐसे ही एक दौर में जब कोई काम धंधा नहीं था मीर जैसे शायर ने दिल्ली छोड़कर लखनऊ का रास्ता लिया। लेकिन एक शायर ने दिल्ली को नहीं छोड़ा। वह अपने कूचे में चटाई पर मजबूती से बैठा रहा और जमाने के सर्द-ओ-गर्म बर्दाश्त करता रहा। ये थे ख्वाजा मीर दर्द।

किले के मुशायरे में ख्वाजा मीर दर्द सुकड़े सिमटे से बैठे थे। सूफी और दरवेश मिजाज रखते थे। सीधे और साफ शेर कहते थे। न उनके शेरों में उलझाव था और न फारसी, अरबी के शब्दों की कारीगरी। शमा उनके सामने राखी गयी तो उन्होंने पढ़ना शुरू किया:  

 

जग में आकार इधर उधर देखा

तू ही आया नजर जिधर देखा

 

जान से हो गये बदन खाली

जिस तरफ तूने आंख भर देखा

 

उन लबों ने न की मसीहाई

हमने सौ सौ तरह से मर देखा

 

ज़िंदगी है या कोई तूफान है

हम तो इस जीने के हाथों मर चले

 

दर्द कुछ मालूम है ये लोग सब

किस तरफ से आये थे किधर चले?

 

दर्द के मिलने से ऐ यार बुरा क्यों माने

उसको कुछ और सिवा दीद के मंजूर न था

 

मीर दर्द साहब जब शेर पढ़ चुके तो दमदम जानी ने शमा उठाई और सीधे जाकर बादशाह के उस्ताद शेख इब्राहीम ज़ौक़ के सामने रख दी।

बादल के टुकड़े चांद से आंख मिचोली खेल रहे थे। चांदनी कभी हल्की पड़ जाती, कभी तेज़ हो जाती। हवा में ठंडक थी। पेड़ ओस में भीग चुके थे।

शेख इब्राहीम ज़ौक़ मंझे हुए शायर थे। ज़िंदगी शायरी की गलियों में खाक छानते गुज़ारी थी। उसकी खामियां और बारीकियां खूब समझते थे। एक दिन बादशाह की ग़ज़ल देख रहे थे कि बादशाह ने कहा:

उस्ताद आज हमारी ग़ज़ल देख रहे हो, कल जब हम न होंगे तो दूसरों की ग़ज़ल देखा करोगे?

ज़ौक़ ने बादशाह की तरफ देखा, उसकी आंखों में दुःख की परछाइयां थीं। आने वाले समय का एहसास हो चूका था। ज़ौक़ बादशाह की इस बात से सन्न रह गये। शरीर में कम्पन सा होने लगा। उनहोंने खुद को संभाला और कहा:

हुज़ूर खेमा जब गिरता है तो तनाबें और रस्सियां पहले ही उखड जाती हैं।

ज़ौक़ का यह कथन बिलकुल सही साबित हुआ। 1857 से पहले ही ज़ौक़ चल बसे.

ज़ौक़ ने पढ़ना शुरू किया:

 

ज़ाहिद शराब पीने से काफिर हुआ मैं क्यों 

क्या डेढ़ चुल्लू पानी में ईमान बह गया 

 

हम आप जल बुझे मगर इस दिल की आग को 

सीने में हमने ज़ौक़ न पाया बुझा हुआ 

 

बनाया इसलिए खाक के पुतले को था इन्सां 

कि इसको दर्द का पुतला बनाये सर से पांव तक 

 

सरापा पाक हैं धोए जिन्होंने हाथ दुनिया से 

नहीं हाजत कि वो पानी बहाएं सर से पांव तक

 

सब ख़ामोशी से सुन रहे थे। ज़ौक़ ने आगे पढ़ा:

 

वक़्त-ए पीरी शबाब की बातें 

ऐसी हैं जैसी ख्वाब की बातें 

 

फिर मुझे ले चला उधर देखो 

दिल-ए खाना-खराब की बातें 

 

महजबीं याद हैं कि भूल गये 

वह शबे माहताब की बातें 

 

उसके बाद शमा बादशाह के सामने लायी गयी। बादशाह की उम्र 80 से ऊपर हो चुकी थी। वह देर रात तक कहां बैठे रहेंगे। मुशायरा तो चलता रहेगा। बादशाह के दरबारी और हाजिब सब सो चुके थे। पहरेदार ऊंघ रहे थे। रात गहराती जा रही थी। किले में सन्नाटा छाया हुआ था। पेड़ खामोश खड़े थे। उनकी शाखाओं से छन छन कर आने वाली चांदनी जमीन पर दायरे, धब्बे बना रही थी। बहादुरशाह की हुकूमत सिर्फ किले के अंदर रह गयी थी। अंग्रेजी हुकूमत ने पुरानी बादशाही का सम्मान करते हुए उनका वजीफा एक लाख रुपये मुकर्रर किया था। आगे कौन उत्तराधिकारी बनेगा यह भी पता नहीं था। अंग्रेज हुकूमत अब किसी को उत्तराधिकारी नहीं बनाना चाहती थी।

बहादुरशाह ने शेर पढ़ा:

 

कितना बेकरार है ज़फ़र दफन के लिए

दो गज ज़मीं न मिली कुए यार में

 

मुशायरे में सन्नाटा छ गया। 1857 में दिल्ली बर्बाद हो गयी। मेरठ छावनी से वह सिपाही लाल किले के झरोखे के नीचे क्या आए, एक तूफान लेकर आए। सुबह का समय था, बादशाह जमना की तरफ झरोखा दर्शन देते थे कि अचानक:

दुहाई है, दुहाई है, बादशाह सलामत हम आपकी शरण में आए हैं, हमे इस गुलामी से बचाओ।

किले में आग की तरह ये खबर फाइल गयी कि झरोखे के नीचे अंग्रेजी सेना के सिपाही दुहाई दे रहे हैं।

बादशाह ने दूसरा शेर पढ़ा:

 

न किसी की आंख का नूर हूं, न किसी के दिल का करार हूं

जो किसी के काम न आ सके वह एक मुश्त गुबार हूं

 

मेरठ छावनी से भागे देसी सिपाहियों को इस देश को आजाद करने के लिए जो शख्स नजर आया वह बहादुरशाह ज़फ़र था। लेकिन उसकी हुकूमत सीमित थी और संसाधनों पर पहरा था।

इस बादशाह ने कमान संभाली, और खूब संभाली। शाही फरमान जारी होने लगे, किले में सभी सरकारी विभाग, जो बरसों से बंद पड़े थे, काम करने लगे। किंग सेक्रेटेरिएट काम करने लगा। हरकारे दौड़ने लगे, गोला बारूद बनाया जाने लगा। अंग्रेजी हुकूमत सकते में आ गयी थी।

बादशाह ने एक और शेर पढ़ा:

 

पसे मर्ग मेरे मज़ार पर जो दिया किसी ने जला दिया  

उसे आह दामने बाद ने सरे शाम से ही बुझा दिया

 

तभी तेज हवा चली, शमा भड़ककर बुझ गयी। अब सिर्फ पेड़ों से छनकर आ रही चांदनी थी, और शायरों की परछाईयां.

चांद से बादल के टुकड़े आंख मिचौली खेल रहे थे। चांदनी कभी धीमी पड़ जाती कभी तेज हो जाती। हवा में ठंडक थी। दमदम जानी ने बुझी हुयी शमा उठायी, उसे फिर से रोशन किया और हवा से बचाते हुए मोमिन खान मोमिन के सामने रख दिया।

मोमिन हकीम भी थे और शायर भी। गजलें अलग रंग में कहते थे। मोमिन ने अपना कलाम पढ़ा।

वह जो हम में तुम में चाह थी, वह हमको तुमसे जो राह थी तुम्हें याद हो कि न याद हो

       उसके बाद शमा जिसके सामने रखी गयी वह सफेद दाढ़ी वाले दुबले पतले शायर थे। पानीपत के रहने वाले थे। शायरी का ऐसा चस्का लगा और गालिब का नाम सुना तो घर से भाग कर दिल्ली आ गये और गालिब के शागिर्द हो गये। उन्होंने दिल्ली की बर्बादी अपनी आंखों से देखी थी। दिल्ली का घिराव कर जब अंग्रेजी हुकूमत ने 1857 की क्रांति को कुचला तो दिल्ली में बहुत कुछ बदल गया था।

      लाल किले से लगे मोहल्ले खुदवाकर जमीन के बराबर कर दिए गये। इन मोहल्लों में दिल्ली के कारीगर बसते थे। हजारों की तादाद में इमारते बनाने वाले, तलवारें, भाले और खंजर बनाने वाले, पत्थर तराशने वाले और तरह तरह के दस्तकार। ये मोहल्ले छोटे कारखाने थे जिनसे बादशाह को जरूरत का सामान मिल जाता था।

      गालिब के ये शागिर्द ख्वाजा हाली थे जो उर्दू शायरी में नये आयाम खोज रहे थे। गुलो- बुलबुल की शायरी पुरानी हुई अब नयी तालिम का ज़माना है। शायरी भी नयी हो और लोगों के लिए मुफीद हो ऐसा हाली का ख्याल था।

      वह दिल्ली जो हाली ने देखी थी और वह दिल्ली जो अब उनके सामने थी, में जमीनो- आसमान का फर्क था। दिल्ली के कैसे काबिल लोग इस तूफान की भेंट चढ़ गये। कैसी आलीशान और एतिहासिक इमारतें खंडर बना दी गयीं। वह दिल्ली को एक ऐसा कब्रिस्तान समझते थे जिसमें बहुत खजाना दफन है। दिल्ली घूमने की इच्छा रखने वाले को वह इस तरह चेताते हैं:

 

            तजकरा दिल्ली मरहूम का ऐ दोस्त न छेड़

            सुना जाएगा हमसे न ये फ़साना हरगिज

 

दाग सीने पे लेके आएगा बहुत ऐ सैयाह

            देख इस शहर के खंडहरों में न जाना हरगिज

           

चप्पे चप्पे पे हैं यहां गौहर-ए यकता तहे खाक

            दफन होगा कहीं इतना न खजाना हरगिज

 

पौ फटने वाली थी। शमा भी रात भर रोते रोते अब खामोश होने को थी। एक पुराने से शायर उठे और कहा अगला मुशायरा पूर्णिमा की रात में होगा जब पूरे चांद की चांदनी खिली होगी। दमदम जानी ने शमा गुल की। शायरों ने अपना अपना रास्ता पकड़ा। पहरेदार सब जाग गए थे। अब वहां पर सूखी हुई पत्तियां थीं, जो हवा से इधर उधर उड़ रही थीं, बुझी हुई शमा थी, और शमा पर मर मिटने वाले परवानों के पंख इधर उधर बिखरे हुए थे।

 

दाग-ए फिराक-ए सोहबत-ए शब की जली हुई

एक शमा रह गयी है सो वो भी खमोश है

                            0000 

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