Saturday, June 18, 2022

अखबारते सियाहिया

बादशाह सलामत गुसलखाने से बरामद हुए। गुलाबदीन ने आवाज लगायी बा-अदब, बा-मुलाहिजा होशियार, तवज्जो मरकूज रहे, सजदे में निगाह रहे, जिल्लेइलाही तख्ते शाही पर जलवा अफ़रोज़ होते हैं.

जिल्लेइलाही ने हुक्म दिया अखबारते सियाहिया पेश किये जाएं।

गुलाबदीन ने फिर आवाज लगायी: दफ़तरे अखबारते सियाहिया को जिल्लेइलाही के रूबरू पेश होने का हुक्म  दिया जाता है। हुक्म की तामील हो।

दफ़तरे अखबारते सियाहिया के मीर मुंशी का ओहदा जीवनदास के पास था। मीर मुंशी जीवनदास, लम्बा चोगा पहने, लाल पगड़ी बांधे, कमर झुकाए बगल में अखबारते सियाहिया की मिसिल दाबे हाजिर हुए और झुक कर कोरनिश बजा लाए।

जिल्लेइलाही ने सर को हल्का सा हिलाकर मीर मुंशी को अखबारते सियाहिया पढ़ने का हुक्म दिया।

हुज़ूर चिरई गाँव से अखबारात हैं कि एक सुरंग घोड़ा मुक्कादीन के चने के खेत में घुस गया और चने की फसल चर गया। हुज़ूर मुक्कादीन ने जब इलाके के कोतवाल से शिकायत की तो कोतवाल ने मुक्कादीन को मार कर भगाया और कहा तुमने खेत पर बाढ़ क्यों नहीं लगायी। ये सब तुम्हारी गल्ती है। तुम खेत की रक्षा करते तो घोड़ा फसल क्यों चरता ?

जिल्लेइलाही ने कहा: इसे कहते हैं उल्टा चोर कोतवाल को डांटे।

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मीर मुंशी जीवनदास ने कहा हुज़ूर गडचेपा गाँव से अखबारात हैं कि ननक्कू की बहु ने रात को दीवार पर चोर देखा। चोर दीवार पर चढ़ रहा था। बहु चिल्लाई, चोर है, चोर है। गाँव वाले जाग गए और चोर को पकड़ने उसके पीछे दौड़े। चोर भागकर मटरू के घर में घुस गया। लोगों ने जब मटरू के खेत में तलाश किया तो सिवाय मटरू के कोई आदमी नहीं मिला। मटरू का कहना था वह तो आराम से झोपड़ी में सो रहा था। शोर सुन कर जाग गया, उसने कोई चोर नहीं देखा। गाँव वाले कहते हैं कि वह चोर मटरू ही था। ननक्कू की बहु का कहना है, वह चोर काला काला, लम्बा लम्बा था। मटरू छोटा, ठिगना आदमी है। ननक्कू ने भगवान का धन्यवाद किया कि  बहु का कुछ गया नहीं चोर का क्या रात को सब लूट लेता.

जिल्लेइलाही ने कहा: हुक्म जारी किया जाए, चोरों से बचने के लिए मटरू के खेत में बाढ़ लगायी जाए।

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मीर मुंशी जीवनदास ने मिसिल से एक मुड़ा तुड़ा कागज निकाला और पढ़ना शुरू किया.

इलाके के मंसबदार ने खबर दी है कि खुदागंज से अल्लाहगंज जाते हुए रास्ता लुटता है। कई आदमी रोज ही लुट जाते हैं। सुबह को हाथ पैर बंधे खेतों में पड़े मिलते हैं। कोतवाल और सिपाही बेबस हैं। दो सिपाहियों की तैनाती की गयी थी उनकी ढाल और तलवारें छिन चुकी हैं। मंसबदार का कहना है इजाजत हो तो इलाके के नुक्का पहलवान को रास्ते की सुरक्षा के लिए लगाया जाए। उसके चेले बहुत हैं। वह चेलों की मदद से रास्ता लुटने से बचा सकता है।

जिल्लेइलाही ने कहा: जिसका काम उसी को साझे और करे तो डंडा बाजे.

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मीर मुंशी ने आगे कहा भैंसोड़ी में हवा फैली है कि भयानक बीमारी फैलने वाली है। कुछ दिन से चिड़ियाँ पेड़ों से मर कर गिर रही हैं। लोगों के मुर्गे और कबूतर बीमार हो गये। एक पहुंचे हुए फकीर ने कहा है नई शताब्दी जब शुरू होगी दुनिया खत्म हो जाएगी। नई शताब्दी शुरू होने में अभी तीन महीने बाकी हैं। इलाके के साहूकार बस्ती छोड़कर  भाग गये अब किसानों को उधार कौन देगा। लोग परेशान हैं कि जाएं तो जाएं कहां और खाएं तो खाएं क्या ?

जिल्लेइलाही ने कहा: मीट मुर्गा खाना बंद करो।

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मीर मुंशी बोले हुज़ूर शाही फौज के घोड़ों के रखवाले ने अर्जी गुजारी है कि घोड़ों की लगामें घिस गयी हैं। उनका चमड़ा पुराना होकर टूट चुका है। बहुत से घोड़े बेलगाम हो गये हैं। सिपाही को पीठ पर चढ़ने नहीं देते। अगर सिपाही जोर जबरदस्ती चढ़ जाए तो दो टांगों पर खड़े होकर उसे गिरा देते हैं। हुक्म फरमाया जाए कि नई लगामें खरीदी जाएं।

जिल्लेइलाही ने हुक्म दिया: एक लगाम में दो घोड़े बांधे जाएं। जो घोड़े हुक्म नहीं मानते उन्हें शाही फौज से निकाला जाए।

जिल्लेइलाही ने इशारा किया। चोबदार ने आवाज लगायी: दफ़तरे अखबारते सियाहिया की पेशी मुल्तवी की जाती है। बहुक्म हुज़ूर जिल्लेइलाही कल फिर पेश किये जाएंगे.

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ज़िंदगी है या कोई तूफान है

लाल किले के दीवाने आम में रात का सन्नाटा छाया हुआ था। पहरेदार सब सो चुके थे। अगहन मास की चांदनी पेड़ों से छन छनकर आ रही थी। दिल्ली शहर सो रहा था। लेकिन लाल किले के दीवाने आम में आज कुछ हलचल थी। वहां एक भीड़ सी जमा थी। लेकिन सब खामोश थे। अपने अपने लबादों में लिपटे लिपटाये बैठे थे, और इस इन्तिजार में थे देखें क्या हुक्म होता है। आज की महफिल दमदम जानी ने सजायी थी। बड़ी मिन्न्त की थी तब यह सारे लोग इकट्ठा हुए थे।

इस किले को मुगल बादशाह शाहजहां ने दिल्ली में जमना के किनारे बनवाया था। शाहजहां को इमारतें बनवाने का बड़ा शौक था। दो इमारतों के लिए उसने जमना का किनारा पसंद किया था। एक ताजमहल और दूसरा लाल किला। शाहजहां ने राजधानी आगरा से दिल्ली तब्दील की थी। अकबर के जमाने तक राजधानी आगरा रही क्योंकि अप्रैल 1526 में इब्राहीम लोदी को हराने वाले जहीरुद्दीन बाबर ने आगरा पर अधिकार किया था। उसकी हुकूमत आगरा से चलती रही।

मुगलों के शासन से पहले कुतबुद्दीन एबक ने दिल्ली को राजधानी करार दिया था। उसने दिल्ली की महत्ता को समझ लिया था। दिल्ली से लाहौर से लेकर गजनी और समरकन्द, तक नजर रखी जा सकती थी और दूसरी तरफ राजपूताना से कश्मीर तक। कुतबुद्दीन एबक को लाहौर बहुत पसंद था और उसका शासन दिल्ली और लाहौर से चलता रहा। लाहौर में ही 1210 ई में पोलो खेलते हुए घोड़े से गिरकर कुतबुद्दीन एबक की मृत्यु हो गयी थी।

उसकी दूरदर्शी निगाहों ने समझ लिया था कि इस देश के लिए अगर कोई बेहतर राजधानी हो सकती है वह दिल्ली ही हो सकती है। दिल्ली सल्तनत ने पहली बार केन्द्रीय शासन के महत्व को समझा। उसने इस देश के लिए एक केन्द्रीय शासन स्थापित किया। इससे पहले यहां राज करने वाले राजाओं, महाराजाओं की अपनी सीमाएं थीं। सत्ता का केन्द्र कोई नहीं था। इन राजाओं में सत्ता के लिए सीमाओं पर संघर्ष होता रहता था। दिल्ली जब शासन का केन्द्र बना और दिल्ली सल्तनत परवान चढ़ने लगी तो शायर, लेखक, सूफी, फकीर, कारीगर चारों ओर से सिमटकर दिल्ली में इकट्ठा हो गये। इमारतें बनायी जाने लगीं, सूफी परम्परा आगे बढ़ी, शायरी की जाने लगी और इतिहास को संजोया जाने लगा।  

शाहजहां ने भी दिल्ली के महत्व को समझा। उसने ताजमहल के रूप में एक निशानी आगरा में छोड़ी और लाल किले की एक यादगार दिल्ली में स्थापित की। बाद में अंग्रेजी हुकूमत भी दिल्ली से ही चलती रही। उन्होंने जमाने की जरूरत को देखते हुए पुरानी दिल्ली की तंग गलियों को छोड़कर दिल्ली में ही शासन का नया केंद्र नयी दिल्ली बनाया।

आज की रात कुछ पुराने, कुछ नये अदीब और शायर, दिल्ली के पुराने वासी इकट्ठा हुए थे। तय हुआ था  कि वर्षों बीत गये, कोई अदबी महफिल नहीं जमीं। जमाने ने बहुत करवटें बदली, जमना में बहुत पानी बह गया। वह आवाज़ें जिनको सुनने को कान तरस गये आज फिर से गूंजेंगी। मुशायरा होगा और खूब होगा। लेकिन तरीका वही पुराना होगा। सब शायर और सुनने वाले चुपचाप बैठेंगे, कोई दाद का शोर और वाह वाह का हंगामा नहीं होगा। जिसके सामने शमा लायी जायेगी वही कलाम पढ़ेगा।

इस मुशायरे का न कोई सदर होगा न कोई संचालक। किसी की शान में कसीदा नहीं पढ़ा जायेगा। बस जिसके सामने शमा रख दी जाए वह कलाम सुनाना शुरू कर दे।

शमा जलाने, शमा बुझाने और उसे हर एक शायर के सामने रखने का जिम्मा दमदम जानी ने अपने सर लिया। वह शायरी के शौकीन थे। दरीबा कलां में हलवा बेचा करते थे। दिन में हलवा बेचते, मीठी बातें करते और रात को मुशायरों में शिरकत करते। अपने घर पर भी मुशायरे कराते थे। उन्हें बहुत से शायरों का कलाम जबानी याद था। थोड़ी बहुत शायरी भी करते थें। जब वह शेर पढ़ते लोग समझते कि यह उन्हीं का शेर है। यह सुनने वाले पर था कि वह शेर पर सर धुने या वाह वाह करे। उनका काम था शेर पढ़ना और अलग हो जाना।

दमदम जानी ने शमा रोशन की। एक शायर जो फरग़ल में लिपटे हुए उंची टोपी लगाए बैठे थे उनके सामने रख दी। शमा तेज़ लौ से जल रही थी और उसकी लौ से धुआं सा उठ रहा था.

वह शायर यूं गोया हुएः

बूए गुल, नाला-ए दिल, दूदे चराग़े महफिल

जो तेरी बज्म से निकला सो परेशां निकला

लोग देखने लगे कि यह शायर कौन हैं। तभी उन्होंने पढ़ाः

वह पूछते हैं कि ग़ालिब कौन है

कोई बतलाओ कि हम बतलाएं क्या

अच्छा तो यह मिर्ज़ा नौशा हैं। पहले असद तख़ल्लुस करते थे। अब ग़ालिब नाम रखा है। एक बूढ़े शायर ने कहा.

पास में बैठा शख्स बोला - मियां लोग कहते हैं कि इनका कहा यह खुद समझें या खुदा समझे.

या शब को देखते थे कि हर गोशा-ए बिसात

दामाने बागबानो कफे गुलफरोश है

गमे हस्ती का असद किससे हो जुज मर्ग इलाज

शमा हर रंग में जलती है सहर होते तक

शमा आगे बढ़ाई गयी। एक बूढ़े शायर थे। बड़ा सा चेहरा, घनी दाढ़ी जो सफ़ेद हो चुकी थी। बड़ा घेरदार पायजामा, लम्बा कुरता, उस  पर अचकन, और कमर पर कई गज़ रेशमी कपड़े  का पटका बंधा हुआ। लोग देखने लगे कि ये कौन हैं:

उनहोंने अपना कलाम पढ़ना शुरू किया:

दिल्ली के जो कूचे थे 

औराक़-ए मुसव्विर थे 

जो चीज़ नज़र आयी 

तस्वीर नज़र आयी 

शायद कि बहार आयी

ज़ंजीर नज़र आयी

लोग कहने लगे इस शायर को को दिल्ली से बहुत प्यार है। ये वही शायर मीर तक़ी मीर हैं। इनके बारे में ही ग़ालिब ने कहा है:

रेख्ता के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो ग़ालिब

अगले ज़माने में कोई मीर भी था

मीर ने ग़ज़ल की जो बुनियाद डाली उसे रेख़्ता कहा गया। इस भाषा में बिखराव था, फैलाव था, इसे बहुत से लोग समझ सकते थे। ये आसान थी, इसमें उल्झाव नहीं था। मीर का ये तर्ज़ बहुत पसंद किया गया.

मीर ने आगे पढा:

 

क्या बूद-ओ-बाश पूछो हो पूरब के साकिनो

हमको ग़रीब जान के हंस-हंस पुकार के

दिल्ली जो एक शहर था आलम में इंतिखाब

रह्ते थे जहां मुंतखिब ही रोज़गार के

उसको फ्लक ने लूटके वीरान कर दिया

हम रहने वाले हैं उसी उजड़े दयार के

 

मीर ने इश्क की चोट दिल पर खायी थी। उन्होंने ऐसा इश्क़ किया कि होश-ओ-हवास जाते रहे। चांद की तरफ देखते तो चांद में महबूब का चेहरा नज़र आता:

 

मीर क्या सादे  हैं बीमार हुए जिसके सबब

उसी अत्तार के लौंडे से दवा लेते हैं

 

ये शेर सुनते ही बहादुर शाह ज़फर के मुंह से एक आह निकली। वाह मीर साहब ! क्या नश्तर मारा है, सीधा जिगर के पार हो गया.

 

मीर अपनी धुन में आगे गोया हुए:

मीर इन नीमबाज़ आंखों में

सारी मस्ती शराब की सी है

नाज़ुकी उसके लब की क्या कहिये

पंखडी एक गुलाब की सी है

माहौल पर रंग चढने लगा था। जामे-मय के रसिया कसमसाने लगे थे। बेहतरीन शाराब पुर्तगाल से आती थी। लोग बोतलें खरीद कर फलों की टोकरी में ऊपर नीचे घास फूस डालकर मज़दूर के सर पर रखवा देते। और उसे हिदयत देते: मियां ज़रा आहिस्ता, ये नाज़ुक शीशा-ए-दिल है, ज़रा ठेस लगी और फूटा।

दिल्ली कई बार उजड़ी और वीरान हुई। कभी तैमूरी आंधी आयी, कभी फतेहपुरी मस्जिद में तलवार निकालकर नादिर शाह दुर्रानी ने ‘बि-ज़न’ बोला और दिल्ली खून में नहा गयी। कभी राजधानी दिल्ली से दौलताबाद ले जायी गयी तो दिल्ली में कुत्ते और कव्वे तक भाग गये। ऐसे ही एक दौर में जब कोई काम धंधा नहीं था मीर जैसे शायर ने दिल्ली छोड़कर लखनऊ का रास्ता लिया। लेकिन एक शायर ने दिल्ली को नहीं छोड़ा। वह अपने कूचे में चटाई पर मजबूती से बैठा रहा और जमाने के सर्द-ओ-गर्म बर्दाश्त करता रहा। ये थे ख्वाजा मीर दर्द।

किले के मुशायरे में ख्वाजा मीर दर्द सुकड़े सिमटे से बैठे थे। सूफी और दरवेश मिजाज रखते थे। सीधे और साफ शेर कहते थे। न उनके शेरों में उलझाव था और न फारसी, अरबी के शब्दों की कारीगरी। शमा उनके सामने राखी गयी तो उन्होंने पढ़ना शुरू किया:  

 

जग में आकार इधर उधर देखा

तू ही आया नजर जिधर देखा

 

जान से हो गये बदन खाली

जिस तरफ तूने आंख भर देखा

 

उन लबों ने न की मसीहाई

हमने सौ सौ तरह से मर देखा

 

ज़िंदगी है या कोई तूफान है

हम तो इस जीने के हाथों मर चले

 

दर्द कुछ मालूम है ये लोग सब

किस तरफ से आये थे किधर चले?

 

दर्द के मिलने से ऐ यार बुरा क्यों माने

उसको कुछ और सिवा दीद के मंजूर न था

 

मीर दर्द साहब जब शेर पढ़ चुके तो दमदम जानी ने शमा उठाई और सीधे जाकर बादशाह के उस्ताद शेख इब्राहीम ज़ौक़ के सामने रख दी।

बादल के टुकड़े चांद से आंख मिचोली खेल रहे थे। चांदनी कभी हल्की पड़ जाती, कभी तेज़ हो जाती। हवा में ठंडक थी। पेड़ ओस में भीग चुके थे।

शेख इब्राहीम ज़ौक़ मंझे हुए शायर थे। ज़िंदगी शायरी की गलियों में खाक छानते गुज़ारी थी। उसकी खामियां और बारीकियां खूब समझते थे। एक दिन बादशाह की ग़ज़ल देख रहे थे कि बादशाह ने कहा:

उस्ताद आज हमारी ग़ज़ल देख रहे हो, कल जब हम न होंगे तो दूसरों की ग़ज़ल देखा करोगे?

ज़ौक़ ने बादशाह की तरफ देखा, उसकी आंखों में दुःख की परछाइयां थीं। आने वाले समय का एहसास हो चूका था। ज़ौक़ बादशाह की इस बात से सन्न रह गये। शरीर में कम्पन सा होने लगा। उनहोंने खुद को संभाला और कहा:

हुज़ूर खेमा जब गिरता है तो तनाबें और रस्सियां पहले ही उखड जाती हैं।

ज़ौक़ का यह कथन बिलकुल सही साबित हुआ। 1857 से पहले ही ज़ौक़ चल बसे.

ज़ौक़ ने पढ़ना शुरू किया:

 

ज़ाहिद शराब पीने से काफिर हुआ मैं क्यों 

क्या डेढ़ चुल्लू पानी में ईमान बह गया 

 

हम आप जल बुझे मगर इस दिल की आग को 

सीने में हमने ज़ौक़ न पाया बुझा हुआ 

 

बनाया इसलिए खाक के पुतले को था इन्सां 

कि इसको दर्द का पुतला बनाये सर से पांव तक 

 

सरापा पाक हैं धोए जिन्होंने हाथ दुनिया से 

नहीं हाजत कि वो पानी बहाएं सर से पांव तक

 

सब ख़ामोशी से सुन रहे थे। ज़ौक़ ने आगे पढ़ा:

 

वक़्त-ए पीरी शबाब की बातें 

ऐसी हैं जैसी ख्वाब की बातें 

 

फिर मुझे ले चला उधर देखो 

दिल-ए खाना-खराब की बातें 

 

महजबीं याद हैं कि भूल गये 

वह शबे माहताब की बातें 

 

उसके बाद शमा बादशाह के सामने लायी गयी। बादशाह की उम्र 80 से ऊपर हो चुकी थी। वह देर रात तक कहां बैठे रहेंगे। मुशायरा तो चलता रहेगा। बादशाह के दरबारी और हाजिब सब सो चुके थे। पहरेदार ऊंघ रहे थे। रात गहराती जा रही थी। किले में सन्नाटा छाया हुआ था। पेड़ खामोश खड़े थे। उनकी शाखाओं से छन छन कर आने वाली चांदनी जमीन पर दायरे, धब्बे बना रही थी। बहादुरशाह की हुकूमत सिर्फ किले के अंदर रह गयी थी। अंग्रेजी हुकूमत ने पुरानी बादशाही का सम्मान करते हुए उनका वजीफा एक लाख रुपये मुकर्रर किया था। आगे कौन उत्तराधिकारी बनेगा यह भी पता नहीं था। अंग्रेज हुकूमत अब किसी को उत्तराधिकारी नहीं बनाना चाहती थी।

बहादुरशाह ने शेर पढ़ा:

 

कितना बेकरार है ज़फ़र दफन के लिए

दो गज ज़मीं न मिली कुए यार में

 

मुशायरे में सन्नाटा छ गया। 1857 में दिल्ली बर्बाद हो गयी। मेरठ छावनी से वह सिपाही लाल किले के झरोखे के नीचे क्या आए, एक तूफान लेकर आए। सुबह का समय था, बादशाह जमना की तरफ झरोखा दर्शन देते थे कि अचानक:

दुहाई है, दुहाई है, बादशाह सलामत हम आपकी शरण में आए हैं, हमे इस गुलामी से बचाओ।

किले में आग की तरह ये खबर फाइल गयी कि झरोखे के नीचे अंग्रेजी सेना के सिपाही दुहाई दे रहे हैं।

बादशाह ने दूसरा शेर पढ़ा:

 

न किसी की आंख का नूर हूं, न किसी के दिल का करार हूं

जो किसी के काम न आ सके वह एक मुश्त गुबार हूंमेरठ छावनी से भागे देसी सिपाहियों को इस देश को आजाद करने के लिए जो शख्स नजार आया वह बहादुरशाह ज़फ़र था। लेकिन उसकी हुकूमत सीमित थी और साधनों पर पहरा था।

इस बादशाह ने कमान संभाली, और खूब संभाली। शाही फरमान जारी होने लगे, किले में सभी सरकारी विभाग, जो बरसों से बंद पड़े थे, काम करने लगे। किंग सेक्रेटेरिएट काम करने लगा। हरकारे दौड़ने लगे, गोला बारूद बनाया जाने लगा। अंग्रेजी हुकूमत सकते में आ गयी थी।

बादशाह ने एक और शेर पढ़ा:

                 पसे मर्ग मेरे मज़ार पर जो दिया किसी ने जला दिया  

     उसे आह दामने बाद ने सरे शाम से ही बुझा दिया


तभी तेज हवा चली, शमा भड़ककर बुझ गयी। अब सिर्फ पेड़ों से छनकर आ रही चांदनी थी, और शायरों की परछाईयां.

चांद से बादल के टुकड़े आंख मिचौली खेल रहे थे। चांदनी कभी धीमी पड़ जाती कभी तेज हो जाती। हवा में ठंडक थी। दमदम जानी ने बुझी हुयी शमा उठायी, उसे फिर से रोशन किया और हवा से बचाते हुए मोमिन खान मोमिन के सामने रख दिया।

मोमिन हकीम भी थे और शायर भी। गजलें अलग रंग में कहते थे। मोमिन ने अपना कलाम पढ़ा।

वह जो हम में तुम में चाह थी, वह हमको तुमसे जो राह थी तुम्हें याद हो कि न याद हो

       उसके बाद शमा जिसके सामने रखी गयी वह सफेद दाढ़ी वाले दुबले पतले शायर थे। पानीपत के रहने वाले थे। शायरी का ऐसा चस्का लगा और गालिब का नाम सुना तो घर से भाग कर दिल्ली आ गये और गालिब के शागिर्द हो गये। उन्होंने दिल्ली की बर्बादी अपनी आंखों से देखी थी। दिल्ली का घिराव कर जब अंग्रेजी हुकूमत ने 1857 की क्रांति को कुचला तो दिल्ली में बहुत कुछ बदल गया था।

      लाल किले से लगे मोहल्ले खुदवाकर जमीन के बराबर कर दिए गये। इन मोहल्लों में दिल्ली के कारीगर बसते थे। हजारों की तादाद में इमारते बनाने वाले, तलवारें, भाले और खंजर बनाने वाले, पत्थर तराशने वाले और तरह तरह के दस्तकार। ये मोहल्ले छोटे कारखाने थे जिनसे बादशाह को जरूरत का सामान मिल जाता था।

      गालिब के ये शागिर्द ख्वाजा हाली थे जो उर्दू शायरी में नये आयाम खोज रहे थे। गुलो- बुलबुल की शायरी पुरानी हुई अब नयी तालिम का ज़माना है। शायरी भी नयी हो और लोगों के लिए मुफीद हो ऐसा हाली का ख्याल था।

      वह दिल्ली जो हाली ने देखी थी और वह दिल्ली जो अब उनके सामने थी, में जमीनो- आसमान का फर्क था। दिल्ली के कैसे काबिल लोग इस तूफान की भेंट चढ़ गये। कैसी आलीशान और एतिहासिक इमारतें खंडर बना दी गयीं। वह दिल्ली को एक ऐसा कब्रिस्तान समझते थे जिसमें बहुत खजाना दफन है। दिल्ली घूमने की इच्छा रखने वाले को वह इस तरह चेताते हैं:

             तजकरा दिल्ली मरहूम का ऐ दोस्त न छेड़

            सुना जाएगा हमसे न ये फ़साना हरगिज

 

दाग सीने पे लेके आएगा बहुत ऐ सैयाह

            देख इस शहर के खंडहरों में न जाना हरगिज

            चप्पे चप्पे पे हैं यहां गौहर-ए यकता तहे खाक

            दफन होगा कहीं इतना न खजाना हरगिज

 पौ फटने वाली थी। शमा भी रात भर रोते रोते अब खामोश होने को थी। एक पुराने से शायर उठे और कहा अगला मुशायरा पूर्णिमा की रात में होगा जब पूरे चांद की चांदनी खिली होगी। दमदम जानी ने शमा गुल की। शायरों ने अपना अपना रास्ता पकड़ा। पहरेदार सब जाग गए थे। अब वहां पर सूखी हुई पत्तियां थीं, जो हवा से इधर उधर उड़ रही थीं, बुझी हुई शमा थी, और शमा पर मर मिटने वाले परवानों के पंख इधर उधर बिखरे हुए थे।

दाग-ए फिराक-ए सोहबत-ए शब की जली हुई

एक शमा रह गयी है सो वो भी खमोश है

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रु-ब-रु कुत्ते

तुगरा खान की गिनती शहर के पुराने पुस्तक विक्रेताओं में होती थी।

आमतौर पर यह देखा गया है कि पुस्तक विक्रेता विद्वान और हलवाई मिठाईखोर नहीं होते हैं। किताब विक्रेताओं के अलावा किताबों के रखवाले, जिन्हें आमतौर पर लाइब्रेरियन कहा जाता है, को बुद्धिजीवी होते नहीं सुना गया। जैसे वक्त का झन्नाटेदार थप्पड़ आदमी को कब्र में पहुंचा देता है,  वैसे ही वह किसी को लाइब्रेरियन और किसी को चपरासी बना देता है।

लेकिन तुगरा खान का मामला इन लोगों से अलग है। वह एक ही समय में पुस्तक विक्रेता, विद्वान और घड़ीसाज़ भी थे। वह अपना खाली समय पुरानी घड़ियों को ठीक करने में लगाते थे  और इस तरह घड़ी घड़ी का हिसाब रखते थे।

उनका पुराने जमाने का ड्राइंग रूम किताबों और घड़ियों से भरा हुआ था। विभिन्न प्रकार की घड़ियाँ दीवारों पर लटकी रहती थीं। मेज पर टाइम पीस और पुरानी जेबी घड़ियाँ सजी रहती थीं। और प्रत्येक घड़ी घंटे में अलग-अलग टाइम। भारत के अलावा, दुनिया के प्रमुख शहरों में स्थानीय समय बताने वाली घड़ियाँ मौजूद थीं। थोड़ी देर बाद, ड्राइंग रूम दीवार घड़ी या अलार्म घड़ी के बजने से गूंज उठता था। इस ड्राइंग रूम में बैठे व्यक्ति को ऐसा लगता था जैसे वह किसी संग्रहालय में बैठा हो। सैकड़ों घड़ियों के बीच में होने के बावजूद वह समय का सही अनुमान नहीं लगा सकता था।

जब तुगरा खान को होश आया, तो वह बॉम्बे के जेजे अस्पताल में पट्टियों में जकड़े पड़े थे। सौभाग्य से,  तुगरा खान एक चार मंजिला इमारत की बालकनी से नीचे होटल के बांस और तिरपाल से बने सायेबान पर गिरे थे और तिरपाल समेत गधों के एक झुंड पर गिरे जो वहां से गुजर रहे थे। इस हादसे में कई गधों की मौत हो गई और कई गंभीर रूप से घायल हो गए जिन्हें पशु अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा।

जब इस दुर्घटना की खबर अखबारों में फैली और मारे गए और घायल गधों को मुआवजा देने की घोषणा की गई, तो अवसरवादी इन गधों के रिश्तेदार बन कर और संबंधी होने का प्रमाण जुटाकर संबंधित विभाग के चक्कर लगाने लगे। पुलिस ने तुगरा खान से भी पूछताछ की, लेकिन उन्होंने उस गधे का नाम बताने से साफ इनकार कर दिया, जिसने पहली मुलाकात के दौरान उन्हें दोलत्ती मारी थी। उन्होंने बस इतना कहा कि अचानक चक्कर आ जाने से वह चार मंजिला इमारत की बालकनी से गिर गये थे। इतना ऊंचा चढ़ने की आदत उन्हें नहीं है, इसीलिए ये दुर्घटना घटी। पुलिस ने उनका नाम पता नोट कर लिया और हिदायत दी की कभी ऊंची इमारत पर न चढ़ना।

खुदा खुदा करके तुगरा खान कई महीनों के बाद ठीक हुए और अस्पताल से डिस्चार्ज कर दिए गये। लेकिन एक पैर में झोल आ गया जिसे उसने सौभाग्य का संकेत माना कि तैमूर लंग ने अपनी इस कमी के बावजूद एशिया में उथल पुथल मचा दी थी, तो तुगरा खान क्या नहीं कर सकते।

तुगरा खान ने कमर पर हाथ रखकर बंबई की सड़कें नापना शुरू कर दीं। कमर पर हाथ रखने से पैर में आये लंगड़ेपन की कुछ कमी दूर होती थी।  दरअसल, वह उस नामाकूल गधे को सबक सिखाना चाहते थे जिसने पहली मुलाकात में दुलत्ती झाड़ दी थी।  वैसे दुलत्ती झाड़ना तो गधों का जन्मसिद्ध अधिकार है और उन्हें इस अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता है।  लेकिन मुलाकात  के दौरान यह कृत्य खासकर जब वह पहली मुलाकात हो तो यह बहुत ही असभ्य और अशोभनीय  होता है। क्योंकि इससे अतिथि के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ सकता है। इसे समझाने के लिए तुगरा खान को गधे की कोठी पर वापस जाना पड़ा।

वहां जाकर पता चला की गर्दब राज हवा पानी बदलने किसी पहाड़ी स्थान पर गया हुआ है। तुगरा खान को यह जानकर बहुत गुस्सा आया। उन्होंने मेज पर पड़े उसी के राइटिंग पैड पर लिखा – ‘समय आने पर मैं तुमसे निपट लूंगा’, ऐसा लिखने के बाद उन्होंने दादर से ट्रेन पकड़ी और अपने वतन वापस आ गये।

मैं तुगरा  खान के घर उनका हालचाल जानने गया था। मैंने देखा कि खान साहब हमेशा की तरह अपने पुराने जमाने के ड्राइंग रूम में अपनी कमर पर हाथ रखे दीवार घड़ी का पेंडुलम ठीक कर रहे थे, और ये शेर गुनगुना रहे थे।

जागते हो तो दू-ब-दू कुत्ते

सोकर उठो तो रु-ब-रु कुत्ते

मैंने अभिवादन किया अभिवादन का उत्तर देते हुए वह मुड़े और कहा:

आदमी की मआश हो क्योंकर?

कुत्तों में बूद-ओ-बाश हो क्योंकर?

 

मैंने कहा हज़रत ये कुत्तों के शेर?

कहने लगे ये शेर कुत्तों के नहीं हैं, मीर तकी मीर के हैं।

मैं हैरान था।

तुगरा  खान कहने लगे। मियां, ये बात उस समय की है जब मैं आप की तरह जवान  था। एक अंग्रेज को देखा कि कुत्ता पाले हुए है। बदसूरत और खतरनाक कुत्ता नहीं बल्कि प्यारा सा कोमल और नाजुक कुत्ता। अंग्रेज उसे अपनी गोद में लेकर टहलने के लिए निकलता। वह मेरा कालेज का ज़माना था। यह देखकर मुझे भी कुत्तों का शौक हो गया। कुछ समय के लिए, मैं कुत्तों की संगति में रहा। मेरे खाने-पीने की आदतें कुत्तों जैसी हो गईं। शौक वही है जो पागलपन की हद तक पहुंच जाए। मेरे साथ ऐसा हुआ कि जब मैं सोकर उठता तो मुझे कुत्ते दिखाई देते। बोलता, तो मुंह से कुत्ते की तरह झाग निकलता और आवाज में कुत्ते की  गुर्राहट शामिल होती। लोग मुझसे किनारा करने लगे। बड़ी मुश्किल से यह शौक छूटा।

पिछले दिनों जब ऊंची इमारत से गिरने की वजह से मेरा मुम्बई में इलाज चल रहा था, पता नहीं डाक्टरों कौन सा इंजेक्शन दिया कि मुझे वार्ड में हर बेड पर कुत्ता नजर आया। डॉक्टर मरीज को सूंघकर बात देते थे की यह मरीज इलाज कराएगा या नहीं। मैं वहां हर रंग, नस्ल और धर्म के कुत्तों के साथ रहा।

मैंने टोकते हुए कहा, "हज़रत, कुत्तों का रंग और नस्ल तो समझ में आती है, लेकिन कुत्तों का धर्म?"

उन्होंने कहा, "तुम नहीं समझोगे। ये तुम्हारी समझ से बाहर की बातें हैं। इन्हें वही समझ सकते हैं जो मेरी तरह या या मीर तकी मीर की तरह कुत्तों के साथ में रह चुके हों।

मीर तकी मीर को एक हसीना से प्यार हो गया और उस हसीना ने मीर को एक गांव की लम्बी यात्रा पर भेज दिया। पता नहीं उस हसीना का इरादा क्या था। हो सकता है वह उन्हें आजमाना चाहती हो कि इश्क के झटके वह झेल सकेंगे या नहीं। पुराने लोग कहते थे कि आदमी को परखने का सबसे अच्छा तरीका सफर है। सफर का मतलब यात्रा, इस सफर में जब वह सफर करता है तो सारी कलई खुल जाती है।

कहते हैं सफर वसीला-ए-ज़फर है, यानी यात्रा सफलता की कुंजी है। लेकिन मीर साहब ठरे नाजुक मिजाज शायर। प्रेमिका के कहने से चले तो गये, सफर ने उनकी सारी चूलें हिला दीं। पहुंचे ऐसे गांव में जहां कुत्तों का राज था। हर जगह कुत्ते। उनके घूरने, भौंकने और गुर्राने ने मीर के इश्क का बुखार उतार दिया, और उन्हें कहना पड़ा:

जागते हो तो दू-ब-दू कुत्ते

सोकर उठो तो रु-ब-रु कुत्ते

बाहर अंदर कहां कहां कुत्ते

बाम-ओ-दर, छत जहां तहां कुत्ते

आदमी की मआश हो क्योंकर?

कुत्तों में बूद-ओ-बाश हो क्योंकर?

ये अशआर मीर तकी मीर की सारी शायरी पर भारी हैं क्योंकि यह कुत्तों की सार्वभौमिकता को दर्शाते हैं। विद्वानों का मानना ​​है कि मीर ने इश्क के अलावा और कुछ नहीं सोचा। मैं कहता हूं कि प्रगतिशील कवियों और लेखकों को मीर को अपना गुरु मानना ​​चाहिए। उन्होंने इन अशआर में प्रचलित सामाजिक व्यवस्था पर गहरा प्रहार किया है।

मुझे तुगरा खान के शब्दों पर विश्वास नहीं हो रहा था कि मीर जैसा कवि कुत्तों से इतना नाराज हो सकता है कि वह उन पर व्यंग लिख दे।

तुगरा खान बोले, हर समझदार इंसान कुत्तों से नाराज़ रहता है और कुत्ते हैं कि पीछा नहीं छोड़ते बल्कि कब्र तक साथ जाते हैं।

कब्र तक! मैंने आश्चर्य से कहा।

हाँ! और क्या। वहाँ अस्पताल में एक खतरनाक किस्म के कुत्ते ने मेरा पीछा किया। उसने कहा "मेरे साथ किसी डॉक्टर के नर्सिंग होम चलो जो सर्जरी के जरिए तुम्हारा लंगड़ापन दूर कर देगा।" मैंने कहा कि मुझे सर्जरी नहीं कराना है। क्या पता मेरे असली पैर की जगह किसी कुत्ते की टांग लगा दें।

मैंने कई लोगों को दूसरों के अंगों के साथ घूमते देखा। अस्पताल में मेरे प्रवेश के दूसरे दिन, एक सज्जन दाहिनी आंख बकरे की, बायीं पुतली मुर्गे की, दिल एक तीतर का और गुर्दा अपने साले का लगाए अंतिम यात्रा पर रवाना हो गये। यह पता चला कि वह अपना दिमाग बदलवाने के लिए अस्पताल में भर्ती हुए थे। उनका दिमाग काफी पुराना हो चुका था और नयी तकनीक के साथ तालमेल नहीं बिठा सकता था।

कई बार ऐसा हुआ है कि रातों-रात लोगों की किडनी और फेफड़े निकाल लिये गए और दूसरों के  फिट कर दिये गये। एक मरीज रात को अच्छा भला सोया था, सुबह जब वह उठा तो उसके पेट में चीरा लगा था। पूछा क्या हुआ पता चला कि एमर्जेंसी में एक मरीज आया था जिसे आंतों के दो या तीन इंच के टुकड़े की जरूरत थी, इसलिए ऐसा किया गया। कई मीटर लंबी आंतों में से एक को दो इंच काट देने किसी की जान बच जाए तो बुरा क्या है?

मुझे डर था कि कहीं वे मेरा दिमाग न बदल दें और उसकी जगह किसी गर्दबराज का भेजा भर दें,  इसलिए मैंने बिना डिस्चार्ज स्लिप लिये अस्पताल छोड़ दिया। सुना है अस्पताल मुझे तलाश कर रहे हैं।

जब मैं अस्पताल से भागा, तो एक नाकारा कुत्ते ने मुझे देखा और भौंकने लगा। आप जानते हैं कि कुत्तों के साथ मेरा अनुभव कितना पुराना है। इसलिए मैं बिल्कुल भी नहीं घबड़ाया। उसने अपने दांत निकाले, मैंने भी अपने दांत निकाले। वह भौंकने लगा, मैंने भी गुर्राने की आवाज निकाली। लेकिन जब उसने मुझ पर हमला किया, तो मैंने भागना ही सुरक्षित महसूस किया। अब स्थिति यह थी कि मैं आगे था और वह मेरे पीछे। बहुत देर तक वह मेरा पीछा करता रहा। उसने मुझे इतना दौड़ाया की मैं एक गहरे नाले में गिर गया. 

अपनी चोटों की परवाह न करते हुए जब मैं कीचड़ में खड़ा होने की कोशिश कर रहा था, तो  मैंने नाले के किनारे लोगों की भीड़ को ताली बजाते और हंसते हुए देखा। उनमें वह कुत्ता भी शामिल था। उस समय वे सभी लोग मुझे कुत्तों की तरह लग रहे थे, जो दांत निकाल कर किसी आदमी की लाचारी का मज़ाक उड़ा रहे थे। अपनी हालत देखकर मुझे मीर तकी मीर की हालत याद आई और मेरे मुंह से ये शेर निकला:

आदमी की मआश हो क्योंकर?

कुत्तों में बूद-ओ-बाश हो क्योंकर?