Tuesday, May 31, 2011

ग़ालिब की दिल्ली में.

एक खत में गालिब ने लिखा था:
"...रोज़ इस शहर में एक नया हुक्म होता है. कुछ समझ में नहीं आता है कि क्या होता है. मेरठ से आकर देखा कि यहां बड़ी शिद्दत है और हालत है कि गोरों की पासबानी पर क़नाअत नहीं है. लाहौरी दरवाज़े का थानेदार मोढा बिछाकर सड़क पर बैठता है, जो बाहर से गोरे की आंख बचाकर आता है उसको पकड़्कर हवालात में भेज देता है. हाकिम के यहां से पांच पांच बेत लगते हैं या दो रूपये जुर्माना लिया जाता है, आठ दिन कैद रहता है. इसके अलावा सब थानों पर हुक्म है कि दरयाफ़्त करो कौन बे टिकट मुकीम है और कौन टिकट रखता है. थानों मे नक्शे मुरत्तब होने लगे. यहां का जमादार मेरे पास भी आया. मैंने कहा भाई तू मुझे नक्शे में न रख. मेरी कैफ़ियत की इबारत अलग लिख. इबारत यह कि असदुल्ला खां पेन्शनदार 1850 ई से हकीम पटियाले वाले के भाई की हवेली में रहता है. न कालों के वक्त में कहीं गया न गोरों के ज़माने में निकला और न निकाला गया. कर्नल ब्राउन साहब बहादुर के ज़बानी हुक्म पर उस्की अकामत का मदार है. अब तक किसी हकिम ने वह नहीं बदला. अब हाकिमे वक्त को इख्तियार है. परसों यह इबारत जमादार ने मोहल्ले के नक्शे के साथ कोतवाली में भेज दी.
कल से यह हुक्म निकला कि यह लोग शहर से बाहर मकान या दुकान क्यों बनाते है.जो मकान बन चुके हैं उन्हें ढा दो और आइन्दा को मुमानियत का हुक्म सुना दो. और यह भी मश्हूर है कि पांच हज़ार टिकट छापे गये हैं. जो मुसलमान शहर में अकामत चाहे बकदर मकदूर उसका अंदाज़ा करार देना हाकिम की राय पर है. रुपया दे और टिकट ले घर बर्बाद हो जाये आप शहर में आबाद हो जाये. आज तक यह सूरत है, देखिये शहर की बस्ती की कौन महूरत है. जो रहते हैं वह भी इख्र्राज किये जाते हैं या जो बाहर पड़े हुए हैं वह शहर में आते हैं......"

यह खत 1857 के ज़माने का है. दिल्ली पर कब्ज़ा करने के बाद सरकारी टिकट छापे गये और फ़ीस लेकर लोगों को शहर में आबाद किया गया. बगैर इजाज़त अगर कोई शहर में आता था तो बेंत पड़ते थे या जुर्माना भरना पडता था.

Sunday, May 29, 2011

एक खत ग़ालिब का दिल्ली के बारे में

गालिब लिखते हैं:

".....बरसात का नाम आ गया पहले सुनो- एक गदर कालों का, एक हंगामा गोरों का, एक फ़ितना इन्हिदाम मकानात का, एक आफ़त वबा की, एक मुसीबत काल की, अब यह बरसात जमी हालात की जामे है. आज इक्कीसवां दिन है, आफ़ताब इस तरह नज़र आ जाता है जिस तरह बिजली चमक जाती है. रात को कभी कभी अगर तारे दिखाई देते हैं तो लोग उनको जुगनू समझ लेते हैं. अंधेरी रातों में चोरों की बन आई है. कोई दिन नहीं कि दो चार घर की चोरी का हाल न सुना जाये. मुबालग़ा न समझना हज़ारहा मकान गिर गये. सैंकड़ों आदमी जा-ब-जा दबकर मर गये. गली गली नदी बह रही है. किस्सा मुख्तसर वह अन्न काल था कि मेंह न बरसा अनाज न पैदा हुआ, यह पन काल है, पानी ऐसा बरसा कि बोये हुए दाने बह गये. जिन्होंने अभी नहीं बोया था वह बोने से रह गये. सुन लिया दिल्ली का हाल ? इसके सिवा कोई नई बात नहीं है जनाब मीरन साहब को दुआ, ज़्यादा क्या लिखूं."

और कुछ शेर कई कवियों के


मेरी आह्ट पाके वह चिल्लाके बोले कौन हो
हड़्बड़ाया मैं कि मैं हूं मैं हूं सरकार आदमी

ज़माने को क्या क्या दिया देने वाले
हमें तूने टरखा दिया देने वाले
ज़माने को तोपें भी दीं मालो-ज़र भी
हमें तूने चरखा दिया देने वाले

नई हदबन्दियां होने को हैं आईने गुल्शन में
कहो बुलबुल से अब अन्डे न रखे आशियाने में

सर्राफ़ कसौटी पे घिसा करते हैं ज़र को
हम वो हैं जो आंखों से परखते हैं बशर को
इन चारों को जादूए सितम देखा है फ़खरू
एक हुस्न को आवाज़ को दौलत को हुनर को

चला जाता हूं हंसता खेलता मौजे हवादिस से
अगर आसानियां हों ज़िन्दगी दुशवार हो जाए

यहां कोताहिये ज़ौक़े अमल है खुद गिरफ़्तारी
जहां बाज़ू सिमटते हैं वहीं सय्याद होता है