ठीक इन्हीं दिनों वाल्दा बीमार पड़ गईं. जिगर में खराबी तजवीज की गई, शहर के नामवर तजुर्बेकार डाक्टरों ने इलाज किया मगर फायदा न हुआ. आखिर में वाल्दा को डाक्टर मजहर खां की डिस्पेंसरी ले जाया गया. मैं वाल्दा को तीसरे दिन डाक्टर साहब की डिस्पेंसरी ले जाता था. वालिद साहब भी साथ होते थे. इलाज जारी हुए कई हफते गुजर चुके थे लेकिन फायदा नहीं हो रहा था.
उस दिन नवम्बर की सुबह थी. जर्द सूरज आसमान के सीने पर कपकपा रहा था, मैं मजहर खां की डिस्पेंसरी के बाहर खड़ा था. वाल्दा साहिबा डिस्पेंसरी के अंदर बैठी हुई थीं. अचानक ही डाक्टर साहब डिस्पेंसरी से बाहर आगये थे और बोले थे:
बेटा आपकी वाल्दा को टयूमर हो गया है. उनका आपरेशन होना जरूरी है. कम से कम दस हजार खर्च होंगे. इतना रूपया खर्च करना तुम्हारे लिए नामुमकिन है. बस अल्लाह से दुआ करो वह जल्द सेहतयाब हो जाएं. एक बात और याद रखना- वाल्दा से झूठ बोलना उनसे कहना कि वह बहुत जल्द सेहतयाब हो जाएंगी. लेकिन वह आपरेशन के बगैर अच्छी नहीं होंगी.
मैं कांप कर रह गया था. इसलिए कि झूठ से नफरत करने वाले को झूठ बोलने की तरगीब दी जा रही थी, वह भी अपनी अजीम मां से.
सारी हकीकत समझ में आ गयी थी. कुछ ही देर बाद हम तीनों अपनी रिहाइशगाह वापस आगये थे. वाल्दा साहिबा बिस्तर पर लिटा दी गयीं. वो आज बार बार मुझे देख रही थीं, जैसे मेरे चेहरे पर कुछ पढ़ने की कोशिश कर रही थीं.
वाल्दा साहिबा ने मुझे करीब बुलाया, वो बोलीं-
आज डाक्टर साहब देर तक तुम से बातें करते रहे थे. वो क्या कह रहे थे.
कोई मेरे अंदर चीख पड़ा .....
अब दिखा अपने किरदार की बुलन्दी. बोल सच, तू अपने आप को सच का सूरज कहता रहा है. दिखा अपनी मां को सच की चांदनी जिस पर तू नाज करता रहा है.
मैं अपने अन्दर केतली के पानी की तरह उबलने लगा. मां को धोखा जो देना था. अपने चेहरे पर रियाकारी की सियाही जो पोतना थी.
मेरी आंखों में आंसू आ गये थे. वाल्दा से मैंने कहा था- आप बहुत जल्द अच्छी हो जाएंगी, अब्बूजान आप से सच कह रहे थे.
अपनी बात खत्म करके मैंने उनकी तरफ से गरदन मोड़ ली.क्योंकि उन्की आंखों से अपनी आंखें मिलाने की हिम्मत मुझ में बाकी नहीं रह गयी थी.
मैंने चुपके से आंखों के आंसू खुश्क किये, गरदन मोड़कर वाल्दा को देखा. वो मेरी आंखों में कुछ तलाश करने लगीं, सोच विचार की लकीरें उन्की आंखों में काफी गहरी थीं. अगले ही लम्हे उन्होंने मुझसे पूछा – तुम झूठ तो नहीं कह रहे हो बेटा.
मैंने हिम्मत करके कहा:
मैंने कभी आप से झूठ बोला है क्या.
वाल्दा साहिबा की हालत दिन बदिन बिगड़ती जा रही थी. मैं अन्दर ही अन्दर मोमी शमा की तरह पिघल रहा था.
चांदनी रात हो या अंधेरी, मैं सोते सोते जाग पड़ता, मां के पास जाता, उन्को देखता और तन्हाई में रोता. झूठ बोलने का जानलेवा एहसास मेरी शख्सियत के लिए मुस्तकिल अजाब बना हुआ था. कुछ अरसे बाद उन्की हालत बिगड़ती गई.
अब वो हडि्डयों का खौफनाक ढांचा बन गयी थीं. जिगर, आंतें और मेदा सब बेकार हो गये थे. मुंह में सड़न पैदा हो गयी थी. रोज अन्को गुस्ल दिया जाता लेकिन सड़न दूर न होती.
उस दिन अचानक उन्की हालत खराब हो गयी. हम सब उन्के इर्द गिर्द खड़े हो गये. उन्होंने लरजती हुई आवाज में कहा था.
तुम बड़े लायक बेटे हो. तुम ने मुझ से कहा था मैं बहुत जल्द सेहतयाब हो जाऊंगी. यह था तो झूठ लेकिन सच से कहीं फायदेमंद.......
मैं इसके सहारे काफी अरसे तक जीती रही हूं. हर सुबह सोचती शाम तक संभल जाऊंगी. हर शाम मुझे सुबह के लिए पुर उम्मीद कर देती. लेकिन एक दिन तुम्हारी बहन ने मुझे वह सब कुछ बता दिया जो तुम ने उसे बताया और मुझ से छुपाया था. मुझे यकीन नहीं आया था कि मेरा प्यारा बेटा मुझ से झूठ भी बोल सकता है. अब मुझे मालूम हो गया है कि दस हजार रूपये न होने की वजह से मेरा आपरेशन न हुआ और मैं मौत के मुंह में जा पहुंची.
उन्के यह जुमले मेरे दिल में उतरते चले गये थे. लेकिन मैं चुप चाप खड़ा था. कुछ ही देर बाद उन्की जबान लड़खड़ाने लगी. मैं जैसे फांसी के फंदे में लटका हुआ था. आखिरी लम्हों में उन्होंने रूक रूक कर कहा था.
मेरे बेटा जल्द की अपने खान्दान को इस लायक बना देना कि कोई मरीज दस हजार रूपये न होने कें सबब कब्रिस्तान न पहुंचे, उस का इलाज रूके न आपरेशन, न वो मिट्टी का ढेर बने.
उन्का हाथ कटी हुई शाख की तरह उन्के सीने पर गिर चुका था, वह मिट्टी का ढेर बन चुकी थीं. वक्त ने दस हजार रूपये न होने की सजा मुझे देदी थी. मैं वाल्दा का जनाजा लेकर इसी जगह यहां कब्रिस्तान में आया था.......