Sunday, September 26, 2010

गिद्‍ध

राम आसरे बाबू ने छतरी बगल में दबाई, थैला हाथ में पकडा और नाक पर चश्मा ठीक करते हुए घर से निकले. उन्हें कचहरी जाना था. वैसे वह साइकिल पर जाते लेकिन धुप तेज़ थी इसलिए उन्हें छतरी लेना पडी. छतरी लगाकर साइकिल चलाना उनके बस का रोग नहीं था इसलिए वह पैदल ही चल पडे. उन्होंने सोचा कि आगे चलकर रिक्शा कर लेंगे लेकिन जेब ने इजाज़त नहीं दी.
कचहरी बहुत दूर थी. उन्होंने छतरी खोल ली. कुछ दूर सडक सडक गये फिर एक गली में मुड गये. उन्हें मालूम थ कि यह गली मेहल्ले में से होती हुई ज़मीन के ऐसे भाग में खुलती थी जिसमें लोग कूडा कचरा डालते थे. फिर उस मैदान से गुज़र कर मुखय सडक थी जिस पर कचहरी और अन्य सरकारी दफ़्तर थे. यह शार्टकट रास्ता था. मैदान की ज़मीन में जगह जगह गड्ढे थे जहां से लोग मिट्टी खोद ले गये थे. कूडे के ऊंचे ऊंचे ढेर लगे थे जिन से उठ रही बदबू ने उन्हें नाक पर रुमाल रखने पर मजबूर कर दिया था. कूडे के ढेरों के बीच से निकलते और गड्ढों से खुद को बचाते हुए वह चले जा रहे थे कि एक स्थान पर कूडे से उठ्ने वाली बदबू बहुत तेज़ हो गयी. उन्होंने निगाह उठाकर देखा तो उनके सामने कुछ दूरी पर किसी जानवर की लाश पडी थी जिसे आवारा कुत्ते और गिद्‍ध भंभोड रहे थे.
वह जल्दी से आगे बढ गये. कुत्ते और गिद्‍ध उन्हें अपनी ओर आता देखकर दाएं बएं खिसक गये. उन्होंने पहली बार गिद्‍धों को इतने पास से देखा था. स्कूल की पढाई करने के बाद वह एक स्थानीय आफिस में क्लर्क हो गये थे, वहीं से शब्द बाबू उन्के साथ ऐसा चिपका कि रिटायरमेन्ट के बाद भी उनके नाम का अटूट अंग बन चुका था.
सुन्सान रास्ते से गुज़र कर वह मेन रोड पर आ गये. उन्के मस्तिष्क में अब भी लाश की बदबू बसी हुई थी. वह सोचने लगे कि बेकार उन्होंने इस शार्टकट से गुज़रना पसंद किया. उनकी आंखों के सामने अब भी गिद्‍धों के चेहरे उभर रहे थे. दोनों डैने ऊंचे किये, गर्दन झुकाए हुए गिद्‍ध बिल्कुल किसी दार्शनिक की भांति विचारों में डूबे हुए थे. वह आदमी से भयभीत नहीं थे. उसे अपनी ओर आता देख कर वह पंख फडफडाकर नहीं उडे. उनकी आंखों में लालच या जल्दी से पेट भरने की लालसा की कोई चमक नहीं थी. वे लाश के पास बैठे हुए चुपचाप अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहे थे.राम आसरे बाबू सोचने लगे कि वे अगर लाशें न नोचते तो शायद फ़िलास्फ़र होते.............!
गिद्‍धों के बारे में बहुत से विचार उनके मन में कौंध रहे थे. हर बार इन विचारों से उन्होंने अपना ध्यान हटाना चाहा लेकिन गिद्‍धों की आकृतियां उनका पीछा करती रहीं.
इस उधेडबुन में उन्हें पता भी न चला कि कब कचहरी का गेट आ गया. गेट से अंदर जाते हुए उन्होंने देखा सामने कलक्ट्रेट की इमारत धूप में चमक रही थी. वहां इमारतों का जंगल उग रहा था. इस अहाते में कई विभाग थे. उनकी आंखों में चमक लगने लगी. कुछ दिन पहले ही उन्होंने अपनी आंखें बडे अस्पताल में टेस्ट करवाई थीं. डाक्टर ने कुछ समय बाद आप्रेशन के लिये कहा था. उन्हें रिटायर हुए छः माह बीत गये थे. पेंशन ही अब एकमात्र सहारा थी. सारी ज़िन्दगी वह एक कलर्क रहे थे. वेतन बस इतना था कि खींच तान कर गुज़ारा हो जाता था. इसी वेतन में उन्होंने अपने तीन बच्चे पाले थे और एक लडकी की शादी की थी. दफ़्तर में उनकी ईमानदारी की छाप थी. इस बात से बेखबर कि उनके आस पास क्या हो रहा है, कौन कितना कमा रहा है, वह अपने काम में लगे रह्ते. पुराने कलर्क थे इस्लिये दफ़्तर के लोग उन्हें बर्दाश्त करते रहे.
सम्बंधित विभाग के सामने पहुंच कर उन्होंने छतरी बंद कर ली. रुमाल से माथे का पसीना पोंछा और चिक उठाकर अंदर प्रवेश किया. कमरे में घुसते ही पहले तो अंधेरा अंधेरा सा लगा लेकिन कुछ समय बाद ही सब कुछ साफ़ साफ़ दिखाई देने लगा.
बडे बाबू कंधे उचकाए और सर झुकाए कुर्सी में धंसे हुए थे. राम आसरे ने ध्यान से देखा......ऐसा चेहरा वह पहले कहीं देख चुके थे.........! कहां देखा था याद नहीं
उन्होंने कांपते हाथों से अपनी अर्ज़ी आगे बढाई. बडे बाबू ने चश्मा उतारा, रुमाल से उसके लेंस साफ़ किये, दोबारा नाक पर जमाया, पान की पिचकारी रद्दी की टोकरी में मारी, फिर अर्ज़ी हाथ में लेकर राम आसरे को घूर कर देख्ने लगे.
राम आसरे का पूरा शरीर कांप गया.
"काम हो जायेगा" बडे बाबू ने कहा.
उनकी आंखों में खुशी की ज्योति जगमगा उठी. काम इतनी जल्दी बन जायेगा उन्होंने सोचा भी न था. आखिर ईमानदारी भी कोई चीज़ होती है. उन्होंने हाथ जोडकर बडे बाबू को धन्यवाद दिया.
वह वापस मुडने ही वाले थे कि बडे बाबू ने कहा "चाय पानी ?"
उन्होंने जेब में हाथ डाला, दस का एक नोट निकाल कर बडे बाबू की ओर बढाया. नोट देखकर बडे बाबू ने एक ज़ोरदार ठहाका लगाया कि उसका मुंह पूरा खुल गया और उसके पान से गंदे टेढे मेढे दांत दिखाई देने लगे....
"दस रुपये से काम नहीं चलेगा.....आप भी मज़ाक अच्छा कर लेते हैं."
"चाय पानी में कितने लगेंगे ?"
"आप से केवल दस हज़ार.... आप अपने आदमी हैं न !"
"दस हज़ार" उन्होंने धीरे से दोहराया.
"दस हज़ार" बडे बाबू ने कहा और उनके चेहरे पर आंखें गाड दीं.
राम आसरे का चेहरा पीला पड चुका था. "कुछ कम कर लीजिए, गरीब आदमी हूं"
बडे बाबू का पारा एकदम चढ गया. "गरीब तो सभी हैं, नीचे से ऊपर तक सभी खा रहे हैं. हमें क्या मिलता है, समझो कुछ भी नहीं."
उन्हें समझौता करना पडा
वह दफ़्तर से बाहर निकले. उनके कदम लडखडा रहे थे. उनके दिमाग में फिर गिद्‍ध का चेहरा उभर आया. कंधे उचकाए और सर झुकाए वह किसी विचार में डूबा हुआ था. शायब उसे किसी नयी लाश का इंतज़ार था. शक्ल से दार्शनिक लगता था. .......ऊपर से उसके पान से गंदे टेढे मेढे गंदे दांत.......भगवान बचाए......गिद्‍ध कहीं का !

उन सभी पाठकों का शुक्रिया कि उन्हों ने इस नये ब्लाग को पढा. विशेष तौर से कहानी सन्यासी के लिये जिन्होंने अपनी टिप्प्णी भेजी लेखक उनका बहुत आभारी है.

Sunday, May 16, 2010

एक कहानी

सन्यासी


चेन्नै सेन्ट्रल से राप्ती सागर एक्स्प्रेस को छूटे हुए एक घन्टा हुआ था. रात का डेढ़ बज चुका था. एसी कम्पार्टमेन्ट में यात्री आराम से सोए हुए थे. एक छोटे स्टेशन पर ट्रेन रुकी और 10 -12 यात्रियों का एक जत्था एसी कम्पार्टमेन्ट में चढ़ आया. इन लोगों के शोर से सारे यत्री परेशान हो उठे. बहुत देर तक वे आपस में बातें करते रहे और फिर सो गये.
सुबह होते ही कम्पार्टमेन्ट में चहल पहल हो गयी. चाय नाश्ते के साथ ज़िन्दगी जाग उठी. यात्रियों का जो जत्था रात को ट्रेन में चढ़ा था उसमें 20 वर्ष के नौजवानों से लेकर 50 वर्ष की पक्की आयु के लोग थे. उन्होंने जाग कर मोबाइल पर बातें करना शुरु कर दीं.
"अब हम आधे घन्टे में ........ स्टेशन पर पहुंचने वाले हैं"
"नाश्ता भिजवा देना"
"पेपर प्लेट्स और मिनरल वाटर भी........"
जब ट्रेन स्टेशन पर पहुंची तो नौकर नाश्ता लिये पहले से ही वहां मौजूद थे. उन्होंने पेपर प्लेट्स, मिनरल वाटर की बोतलें, और नाश्ते के पैकेट यात्रियों के जत्थे को दिये. सभी नौकर ड्रेस में थे, उन्के कन्धों पर एक बड़ी कम्पनी का मोनोग्राम बना हुआ था. मालूम हुआ कि यात्रियों का येह जत्था एक बड़े व्यापारिक संस्थान का मालिक है, जिसकी शाखाएं देश के कोने कोने में फैली हुई हैं.


तभी मुसाफिरों ने देखा कि गोरे चिट्टे, गेरुए वस्त्र धारी एक सन्यासी ने एसी कम्पार्टमेन्ट में प्रवेश किया.मेरी नज़रें भी अनायास उस की ओर उठ गयीं. क्लीन शेव और घुटे हुए सिर का यह नौजवान. जिसकी आयु मुश्किल से 25-26 वर्ष होगी. चेहरे से यूरोपियन लगता है. यह और सन्यासी..... ?


वे नाश्ता करने के साथ साथ हंसी मज़ाक़ और बाए चीत करते रहे. वे दक्खिन भारत के भ्रमण के बारे में ज़िक्र करते. उसके बाद घरेलू बातें शुरु हो जातीं..........
"नितिन भैया लन्दन से कब लौटे गा ?"
"बबली आन्टी पेरिस गयीं हैं"
"चीकू की शादी में बड़ा मज़ा आया था."
फिर कहीं न कहीं से मोबाइल की घन्टी बज उठ्ती.......
वे खूब खाते, मिनरल वाटर पीते, स्टेशन आने से पहले नौकरों को सूचित करते, उनसे खाने पीने का सामान मंगवाते. खाने के बाद पेपर प्लेट्स, खाली बोतलें, चाय के कप, खाने का बचा सामान सीटों के नीचे खिसका देते. दोपहर तक उन्होंने बहुत सा कचरा एसी कम्पार्टमेन्ट की सीटों के नीचे भर दिया.
ए.सी. में यत्रा करने वाले लोगों में ज़्यादातर धनाड्य व्यापारी वर्ग या फिर सरकारी वर्ग होता है. उनमें से कोई भी एक बार यह नहीं बोला कि कचरा हमारी सीटों के नीचे मत फेंको. सोचा कि हमें क्या लेना देना. सरकारी ट्रेन है. हमें तो कुछ समय बाद इस ट्रेन से उतर कर चले जाना है.
ट्रेन अपनी मंज़िल की ओर बढ़्ती जा रही थी. नागपुर का स्टेशन आया. ट्रेन वहां पर कुछ देर को खड़ी हो गयी.
वह यात्री जत्था उतर कर हंसता गाता चला गया.
कम्पार्टमेन्ट के मुसाफिरों ने चैन की सांस ली. चलो धनाड्य असभ्य लोगों से पीछा तो कटा. तभी मुसाफिरों ने देखा कि गोरे चिट्टे, गेरुए वस्त्र धारी एक सन्यासी ने एसी कम्पार्टमेन्ट में प्रवेश किया.
मेरी नज़रें भी अनायास उस की ओर उठ गयीं. क्लीन शेव और घुटे हुए सिर का यह नौजवान. जिसकी आयु मुश्किल से 25-26 वर्ष होगी. चेहरे से यूरोपियन लगता है. यह और सन्यासी..... ?
मैं उसे एक टक देखता रहा. उसने अपना बैग बर्थ पर रखा और आराम से बैठ गया. ट्रेन अभी रुकी हुई थी. ज़रा देर बाद वह बाहर गया और एक दर्जन केले खरीद कर ले आया.
मेरी निगाहें उसी की ओर लगी हुई थीं. उसने बैग से अखबार निकाला, उसे अपने घुटनों पर बिछाया. फिर वह केले छील छील कर खाने लगा. वह ध्यान से छिलके अखबार पर रखता रहा. केले खाने के बाद उसने सारे छिलके सावधानी से अखबार में लपेट लिये. फिर उसने झुककर ट्रेन के फ़र्श को देखा. फ़र्श पर केला छीलते समय एक आध रेशा गिर गया था, वह उसने उंगली में चिपका कर उठाया और अखबार में रख लिया.
ट्रेन चल चुकी थी. वह इंतज़ार करता रहा. अगले स्टेशन पर बाहर जाकर छिलके कूड़ेदान में डाल दिये.
मेरी उत्सुकता बढ़्ती जा रही थी. वह वापस आया तो मैंने उसे अपना परिचय दिया और बातें शुरु कर दीं.
उसने बताया कि वह जर्मनी का रहने वाला है. उसके पिताजी का बिज़नेस कई देशों में है. वह भारत के धर्म और दर्शन से बहुत प्रभावित है और अपने ढंग से दुनिया को देखना चाहता है.
मैंने कहा " यह सन्यासी का वेश.......?"
उसने बताया कि उसे इस वेश भूषा में शांति मिलती है. दूसरे यह कि भारत के लोग सन्यासियों को सम्मान की नज़र से देखते हैं.
मैंने पूछा "भारत के लोग आप को कैसे लगे ?"
उसने कहा " लोग अच्छे हैं लेकिन उनमें सामाजिक दायित्व की कमी है. वे दूसरों के हितों का ध्यान नहीं रखते."
उसकी बात मुझे झकझोर गयी. मैं सोचने लगा कि हम लोग दूसरों के बारे में सोचना कब शुरू करेंगे ?

Wednesday, February 10, 2010

यह है मेरा शहर

शाम होते ही शहर की रोशनियां गुल कर दी गयीं. यह वह शहर है जहां का दस्तूर निराला है. मेरा शहर उत्तर प्रदेश के मशहूर हिस्से रुहेलखण्ड का एक भाग है. अभी तक तो यह उत्तर प्रदेश में ही है लेकिन पता नहीं कब यह किसी और प्रदेश में चला जाये या इस्का नाम बदल दिया जाये. यह वह शहर है जो मुगल बादशाह शाहजहां के नाम से मनसूब है. पुराने शाहजहांनाबाद (दिल्ली) में दो इमारते - लाल किला और जामा मस्जिद, आगरा में एक यादगार ताजमहल और रुहेलखण्ड में जमीन का यह भाग जिसे शाहजहांपुर कहते हैं, शाहजहां के लाज़वाल वकार की कहानी कह रहा है.
मुगलों का दौर गुज़र गया, आसार बाकी हैं वह भी आहिस्ता आहिस्ता मिट रहे हैं. ताजमहल के संगे मरमर को तेज़ाबी माद्दे खोखला कर रहे हैं, उसकी बुनियदें धंस रही हैं. जामा मस्जिद के पत्थर घिस चुके हैं उनके ज़र्रात झड रहे हैं. लाल किला भाषण देने के काम आ रहा है, शीश महल के शीशे काले पड चुके हैं, दीवाने आम और दीवाने खास की हालत देखने के काबिल है ऐसे में अपने शहर का ज़िक्र क्या किया जाये. लेकिन हर शहर में कुछ अच्छाइयां कुछ बुराइयां होती हैं क्यों न उनहीं पर बात की जाये:
यह शहर दो नदियों गर्रा और खन्नौत के बीच बसा है. बहुत सारे शहर सिर्फ एक नदी के किनारे बसे हैं. इस में खास बात यह है कि यह दो नदियों के दरम्यान है. यहां पानी की बहुत इफ़रात है इस्लिये यहां पानीदार लोगों की कमी नहीं. यहां वह जियाले पैदा हुए जिन्होंने अंग्रेज़ों के छ्क्के छुडा दिये.
यह शहर राम प्रासाद बिस्मिल, अश्फ़ाक उल्लाह खान और ठाकुर रोशन सिंह की वजह से ही मशहूर नहीं है जिन्होंने काकोरी में सरकारी खज़ाना लूटने के जुर्म में फांसी की सज़ा पायी और अपना नाम आज़ादी के अमर शहीदों में लिखा गये. इस शहर में 1857 के दौरान अहमद उल्लाह शाह ने अंग्रेज़ों से आखरी लडाई लडी. यहीं उनका सर दफन है. 1857 की लडाई जीतने के बाद नवाब बहादुर खां का किला और मोहल्ला ख्वाजा फीरोज़ में नवाब याकूब अली खां का किला खोद कर ज़मीन के बराबर कर दिया गया. अंग्रेज़ों ने अपना गुस्सा ईंट पत्थरों पर भी उतारा.
उत्तर प्रदेश में नदियों का बहाव उत्तर से दखिन को है इसलिये शहर बसाने वलों की मजबूरी थी कि शहर भी लम्बाई में नदियों के बीच की पट्टी में बसाया जाए. उन्होंने शहर बसा कर दो सडकें लम्बाई में निकाल दीं. 1637 में यह शहर बसाया गया, अब यह नदियों के किनरों के बाहर तक फैल चुका है. सडकें अब तंग पड चुकी हैं और उन पर कई प्लान लागू हैं - जैसे शहर को हरा भरा और साफ़ सुथरा बनाने का प्लान. इतिहास पर एक नज़र डाल जाइए - चाहे महाराजा अशोक का ज़माना हो या चंद्र्गुप्त मौर्य का, सड़कों के दोनों ओर पेड़ लगाने की परम्परा रही है. इस ज़माने में ग्रीन सिटी और क्लीन सिटी का सपना साकार करना है. इसके लिये सडकों के किनारे पेड लगाये गये. पेड जब बढे तो बिजली के तारों से बातें करने लगे. अब पेड काटते हैं तो पर्यावरण का सत्यानास होता है, नहीं काटते हैं तो बिजली वाले परेशान हैं - क्या किया जाए ?
जब दरख्त लगाने से सिटी ग्रीन हो गया तो क्लीन सिटी पर अमल करते हुए शहर के नाले नालियों की सफाई का काम शुरु हुआ. बारिश का इस शहर की सफाई से पुराना बैर है. इधर नाले नालियों का कचरा सडक के किनरे डाला गया कि ज़रा सूख जाए तो उठाया जाए, उधर बारिश शुरु हुई. सडकें तालाब बन गयीं और कचरा चारों ओर फैल गया. ग्रीन सिटी और क्लीन सिटी का सपना अधूरा रह गया.
फिर सोचा गया कि और शहरों की तरह वन वे ट्रैफिक की शुरुआत की जाए. सडकों को डिवाइडर लगा कर दो भागों में बांट दिया गया. दुकानों के सामने वाहन पार्क करने से मना किया गया ताकि लोगों को असुविधा न हो. अब लोग बीच सडक पर अपने वहन पार्क करते हैं और वन वे ट्रैफिक का मज़ा लेते हैं.
संचार क्रांति भी यहां बडी तेज़ी से आयी. रोज़ नयी नयी कम्पनियां सड़्कों के किनारे केबिल डाल रही हैं. केबिल मार्क करने के लिए पत्थर के खूंटे गाड़ रही हैं. लोग अन्धेरे में उनसे टकरा कर हाथ मुंह तुड़्वा रहे हैं. संचार क्रांति का फ़ायदा यह है कि इधर ठोकर लगी उधर मोबाइल से घर पर सुचना दी कि चोटिल हो गये हैं आकर उठा ले जाओ. यदि संचार क्रांति में तेज़ी न आयी होती तो इतनी जलदी सुचना देना संभव नहीं था.
बिजली हो या टेलीफोन दोनों यहां पर आंख मिचोली खेलते हैं. लैन्डलाइन टेलीफोन लोगों ने कटवा दिये और मोबाइल से नाता जोडा है क्योंकि लैन्डलाइन टेलीफोन का ठीक रहना बडे सौभाग्य की बात है:-
मैने एक कम्पनी का
बेसिक टेलीफोन कनेक्शन लिया
लोगों ने कहा:
नये ज़माने में
पुरानी बांसुरी बजा रहे हो
लोग हवाई जहाज़ की सोचते हैं
तुम तांगे पर जा रहे हो
यह टेलीफ़ोन तो
लगता ही नहीं है
इस पर नम्बर मिलता ही नहीं है
अक्सर खराब रह्ता है
मैने कहा:
चलो यह भी अच्छा है
कभी तो बेवजह कालों से
छुट्टी मिलेगी
टेलीफोन खराब है
मसरूफियत के इस दौर में
यह बहाना भी अच्छा है
इस शहर के बारे में लोगों के विचार कुछ भी हों, यह एक एतिहासिक शहर है जो इतिहास की सुनहरी यादों को गले से लगाये अतीत और वर्तमान के झूले में झूल रहा है. यहां के लोगों में सौहर्द और भाई चारा है. लोग एक दूसरे के दुख दर्द में बखूबी काम आते हैं. यहां के लोगों में शिष्टाचार, और बोल चाल की भाषा का एक उत्कर्ष रूप देखने को मिलता है. यहां बोली जाने वाली भाषा रेडियो, टी वी और सिनेमा की जान है. इस शहर ने अपनी भाषा को बचा रखा है और यह एक बड़ी बात है.
तो यह है मेरे शहर की कहानी.