Wednesday, November 11, 2015
Saturday, October 31, 2015
साग़र वारसी
उर्दू के मशहूर शायर साग़र वारसी की किताब अभी हल ही में नगमा ओ नूर के नाम से छपी है. साग़र साहब उर्दू के उस्ताद शायर हैं. इस किताब में नातों का संकलन किया गया है. साग़र वारसी मंझे हुए शायर हैं. उनका अंदाज़ और जज़्बा किसी तारुफ़ का मोहताज नहीं. उनका कलाम 1968 में राबाब ए ज़ीस्त के नाम से छाप चुका है. नगमा ओ नूर से एक खूबसूरत हम्द देखिये. हम्द वो नज़्म है जो खुदा की तारीफ़ में कही जाती है
राह में आएं जब संकट
दूर भगाए रब संकट
या रब उस से रखना दूर
बख्शे जो मनसब संकट
दाता जब तू पालनहार
भोजन का है कब संकट
चैन से कैसे नींद आये
जब लाये हर शब संकट
जो उपजें इच्छाओं से
हैं सब बे मतलब संकट
मैं ने रब को दी आवाज़
आया है जब जब संकट
रखा रब ने ही महफूज़
आये तो जब तब संकट
सागर रब से मांग मदद
टल जाएंगे सब संकट
अब एक नात के अशआर पेशे खिदमत हैं
जब यह कहते हो कि हैं दिल में उजाले उनके
खुद को फिर क्यों नहीं कर देते हवाले उनके
दर्स आमोज़ हुए खुश्क निवाले उनके
अपनी उम्मत को दिए सब ने हवाले उनके
अपना घर कोई दिल में बनाले उनके
फैज़ ओ इकराम के हैं तौर निराले उनके
राह में आएं जब संकट
दूर भगाए रब संकट
या रब उस से रखना दूर
बख्शे जो मनसब संकट
दाता जब तू पालनहार
भोजन का है कब संकट
चैन से कैसे नींद आये
जब लाये हर शब संकट
जो उपजें इच्छाओं से
हैं सब बे मतलब संकट
मैं ने रब को दी आवाज़
आया है जब जब संकट
रखा रब ने ही महफूज़
आये तो जब तब संकट
सागर रब से मांग मदद
टल जाएंगे सब संकट
अब एक नात के अशआर पेशे खिदमत हैं
जब यह कहते हो कि हैं दिल में उजाले उनके
खुद को फिर क्यों नहीं कर देते हवाले उनके
बाज़ औकात बड़े सख्त मराहिल आये
फिर भी असहाब ने अहकाम न टाले उनके
दोनों आलम की जिन्हें हुकूमत बख्शी दर्स आमोज़ हुए खुश्क निवाले उनके
ख़ालिक़े कुल ने नकीब अपना बनाकर भेजा
दोनों आलम में हैं एजाज निराले उनके
उन से पहले के नबी वाक़िफ़े अज़मत थे सभी अपनी उम्मत को दिए सब ने हवाले उनके
पैकरे नूर बनाया है खुदा ने उनको
अर्ज़े कौनैन में फैले हैं उजाले उनके
फिर तो हो जाए उसे कुर्बे खुदा भी हासिल अपना घर कोई दिल में बनाले उनके
रंग और नस्ल की उनके यहाँ तफ़रीक़ नहीं
गन्दुमी उनके सफ़ेद उनके हैं काले उनके
तुझ को भी सागर ए आसी वो नवाजेंगे ज़रूर फैज़ ओ इकराम के हैं तौर निराले उनके
Wednesday, October 28, 2015
खिड़कियां
पहली खिड़की
कमरे की खिड़की बाहर सड़क की ओर खुलती है। यह मोहल्ले की एक संकरी गली है जिसपर र्इंटों का खड़ंजा बिछा है। खड़ंजे के किनारे ढालदार नालियां है जो गर्मियों के दिनों में सूखी पड़ी रहती हैं। गली में चंद मकान हैं बाकी जगहें वीरान पड़ी है। कुछ खण्डहर हें जिनकी टूटी फूटी दीवारों पर कार्इ लगी है और झाड़-झंकाड़ उग रहे हैं।
बच्चे गली में खेलते है। गर्मियों की दोपहरियों में पास पड़ोस की चाची, तार्इ, चाचा, ताऊ , बाबा, गली के किनारे नीम और पाकड़ की छांव में बैठकर इधर उधर के बेकार किस्से सुना सुनाकर गर्मियों की जलती दोपहरियां काटते हैं।
बांसुरी या डुगडुगी बजने की आवाज आते ही बच्चे उत्सुकता से बाहर की तरफ दौड़ जाते हैं। उन्हें उस आवाज का मतलब पता है। किसी ने बताया हो या न बतायो हो उनके कान जैसे इस आवाज के आदी हो चुके है। यह आवाज उनके मन में कौतूहल भर देती है। उन्हें पता है बंदर, भालू के नाच के बारे में...........जादूगर के तमाशे के बारे मेंं......... तमाशा खत्म होते ही वह अपने अपने घरो से आटा लाने दौड़ जाते है।
समय बीतता है। गली में खिड़की अब भी खुलती है लेकिन दृश्य बेजान हो गये हैं । खाली जगहें मकानों से भर गयी हैं। पाकड़ की ठण्डी छांव रही न नीम का वृक्ष। अब खण्डहरों पर कार्इ नहीं जमती न चिडि़यां घोंसले बनाती हैं..........
दूसरी खिड़की
खिड़की बाल्कनी में खुलती है।सामने दूर तक ऊंची ऊंची इमारतों का जंगल है। वृक्षों की तरह यह इमारतें उपर की तरफ बढ़ रही हें। खिड़की खुलते ही बाहर ट्रैफिक का शोर सुनायी देता है। खिड़की में एयर कूलर लगाा है। कभी कभी कूलर में पानी डालने, पानी का पाइप देखने, पानी खोलने-बंद करने के लिए बाल्कनी में जाना पड़ता है। बाल्कनी में कुछ गमले भी रखे हैं जिनके पेड़ समय से पानी न मिलने के कारण सूख रहे हैं । जंगली कबूतरों के कर्इ जोड़े जाने कहां से आ गये हैं जो बाल्कनी में बंधी कपड़े सुखाने की रस्सी पर बैठते है। उनके लिए घोंसला बनाने की जगह कहीं नहीं है। न अब घोंसले के लिए तिनके मिलते हैं। कबूतर ने प्लासिटक के तार, कागज के बेकार टुकड़े उठाकर खिड़की पर कूलर की साइड में घोंसला बनाने की कोशिश की है.......
इस बेतुके घोंसले में दिये उसके दो अण्डों में से एक ड्रेन पाइप से नीचे गिर गया है दूसरा लुढ़ककर गमले के अन्दर पड़ा है.......
तीसरी खिड़की
कमरे में खिड़की है उसके पट बाहर की तरफ खुलते है लेकिन उसे खोला नहीं जाता और न ही खोला जा सकता है। बाहर की तरफ बाल्कनी भी नहीं है केवल सपाट दीवार है जिसमें हर मंजिल पर ऐसी न जाने कितनी बंद खिड़कियां हैं। बिलिडंग में लगी इन सभी खिड़कियों को अच्छी तरह बंद किया गया है क्योंकि उनमें विन्डो एसी लगे है।
इस खिड़की से बाहर की धूल, धूप, हवा अन्दर नहीं आ सकती। जब उसने यह फलैट लिया था वह कभी कभी रात में खिड़की खोल लेता था। ट्रैफिक की चमकती रोशनियां छन छनकर अन्दर आती थीं।
खिड़की में ए.सी. लगवाने में उसे बड़ी दिक्कतें उठानी पड़ीं। पत्नी ने गर्मी मेें लोहार की भटटी की तरह तप रहे कमरे में रहने से इनकार कर दिया। घूल और घूप की वजह से खिड़की खोलने से भी इन्कार कर दिया। उसे धूल से बहुत एलर्जी थी।
उसने कहा मैं इस कमरे में जभी रह सकती हूं जब ए.सी.लग जाए। वरना तुम जानो और तुम्हारा काम। तुम तो दिनभर आफिस में ए.सी. में रहते हो और मैं यहां गर्मी में झुलस जाती हूं। कम्पनी से उधार पर ए.सी.लिया, अपने रोज के खर्चे में कटौती की तब कहीं जाकर कमरा ठण्डा हुआ और दिमाग भी।
खिड़की अब खुल नहीं सकती बाहर के सारे दृश्य धूमिल हो गये हैं.............
चौथी खिड़की
रात का समय है वह एक साथ चार खिड़कियां खोले बैठा है। एक खिड़की में वीडियो फिल्म चल रही है यह हालीवुड की नर्इ फिल्म है जिसने दुनिया में तहल्का मचा रखा है......
दूसरी विन्डो में एक प्रोग्राम डाउनलोड हो रहा है। तीसरी मेें दुनिया के समाचार हैं कि कहां कितनी तरक्की हुर्इ है इंसान को मारने के कितने नये नये प्रयोग किये गये है। कहां लोगो पर कानूनी रूप से बम्बारी की गयी और कहां लोगों ने लोगो को गैर कानूनी तरीके से मारा गया है....
चौथी खिड़की में उसके खाने कमाने का हिसाब है। कब कहां कितना कमाया और कितना गंवाया........
पांचवीं खिड़की
पांचवीं खिड़की में झांकने की उसकी हिम्मत नहीं है। यह खिड़की खुली ही रहती है और इस से जब तब हवा धुल धुप और बदबू के झोंके आते रहते हैं. वह चाहते हुए भी इस खिड़की को बंद नहीं कर सकता है. इस खिड़की में देखने पर बूढ़ बेसहारा और लाचार बाप दिखार्इ देता है जिसकी जमीन कर्ज मेें गिरवी पड़ी थी और वह अपने ही खेतों में मजदूरी कर रहा था। हार्इस्कूल तक की उसकी पढ़ार्इ कैसे हुर्इ यह सब उस खिड़की में से दिखार्इ देता है।
यह खिड़की खुली ही रहती है कोर्इ एसी तरकीब नहीं जिससे इसे बंद किया जा सके............
Sunday, May 25, 2014
बोलती तन्हाइयां
अयूब असर का नाम शाहजहांपुर के बड़े शायरों में लिया जाता है। आप की किताब बोलती तन्हाइयां का प्रकाशन 2005 में हुआ। बोलती तन्हाइयां में ग़ज़लें और नज़्में हैं। अयूब असर की शायरी में जिन्दगी की कड़वी मीठी सच्चाइयां हैं । वह एक खुले दिल के इंसान थे साफ बात कहना और करना पसंद करते थे। उनकी शायरी भी उन्हीं की तरह खुली खुली है।
हमारे बाद कोई गम की धूप में न जले
शजर यह सोच के हमने भी कुछ लगाये हैं
असर बहार का मौसम जो याद आया कभी
तो हम क़फ़स में बहुत देर फड़फड़ाये हैं
जामे मय आंखों को चेहरे को कमल लिखते रहे
उसकी सूरत देखकर हम भी ग़ज़ल लिखते रहे
सच तो ये है ग़ौर से जब तक उसे देखा न था
चांद को हम उसे चेहरे का बदल लिखते रहे
अपनी मंज़िल की तमन्ना में जो भटके उम्र भर
दूसरों की खुशनसीबी का वो हल लिखते रहे
मेरे आंगन में न उतरी एक पल भी चांदनी
लिखने वाले जाने क्या राशि के फल लिखते रहे
इश्क के बीमार को यारो शिफा होती नहीं
इस मर्ज़ में कारगर कोई दवा होती नहीं
शोर उठता है अगर पत्ते पे शबनम भी गिरे
शीशाए दिल टूट जाता है सदा होती नहीं
मौत को हम दुश्मने इन्सां समझते थे असर
ज़िन्दगी भी मार डालेगी यह अंदाज़ा न था
Wednesday, March 28, 2012
कहानी मेरे झूठ की
मुज़्तर अंसारी
उर्दू कहानीकार हैं. 1929 में शाहजहांपुर के मोहल्ला ककराकलां में जन्म हुआ पहली कहानी कुर्बानी के नाम से लाहौर से निकलने वाली उर्दू मैगजीन निराला में छपी. 1947 से कहानियां लिख रहे हैं. आप की कहानियों में सामाजिक बुराइयों के प्रति एक विरोध झलकता है. कहानी का ताना बाना अपने आस पास के माहौल से बुनते हैं. उन्की कहानियों में समाज के जख्म रिस्ते हैं, कड़वी सच्चाइयां सामने आती हैं. बाल आईनों के, नई करवट कहानियों के संग्रह हैं.
मेरी मां जिद्दी हैं खुदसर और बागी ख्वातीन में से हैं. बरसें गुजर चुकी हैं जब फौत हुई थीं. लेकिन मर कर भी मरना नहीं चाहतीं. वो अक्सर लाशऊर में उभर आती हैं. किसी वक्त तंज के अंदाज में मुस्कुराती हैं और मेरे जेहन में माजी के अंधेरे को किसी सैयाल की तरह उंड़ेल देती हैं. सामने कई मंजर आ जाते हैं जिनमें मैं मुख्तलिफ हालात में खुद को देखता हूं. किसी वक्त बस्ता बगल में दाबेस्कूल जाता दिखाई देता हूं, किसी वक्त वाल्दा मोहतरमा की गोद में कहकहे लगाता हुआ नजर आता हूं. और कभी अपने आपको अपने बाग में उछलते हुए देखता हूं.
यह सारे मनजर मुझे पागल होने का एहसास कराते हैं. लेकिन ऐसा नहीं है. मैं अक्सर सोचता हूं वाल्दा साहिबा कितनी हठीली, कितनी जिद्दी, और कितनी मुस्तकिल मिजाज हैं. दिन हो या रात, अंधेरा हो या उजाला, हर वक्त हर माहौल में मेरे करीब आ जाती हैं.
मैं वाल्दा के मुतअल्लिक बड़ी शिद्दत से सोचता हूं. इतना कि मेरी सोच का बदन जख्मी हो जाता है. आंखों के सामने अंधेरों के हयूले नाचने लगते हैं और मैं अपने अंदर की गहराई में डूबने लगता हूं.
आज ईद है, शाम का वक्त है, मैं कब्रिस्तान आया हूं. आया तो ईदगाह था लेकिन मां की कब्र देखने कब्रिस्तान में चला आया हूं.
यह वो जगह है जहां जिंदगी की सारे हकीकतें मिट्टी में मिल जाती हैं. और जहां सारे रिश्ते सारी मोहब्बतें जमीन की तेजाबी मिट्टी चाट जाती है. और जहां मेरी नामनिहाद सच्चाई के चेहरे से परदा उठता है और मेरे झूठ का मकरूह चेहरा सामने आता है. और मेरी सोच के तेज रफ्तार हिरन कुलाचें भरने लगते हैं और मैं कागज की कमजोर नाव की तरह हिचकोले खाने लगता हूं.
मैं वाल्दा की कब्र के चबूतरे पर बैठा हूं. आगे पीछे कब्रें ही कब्रें दिखाई दे रही हैं. मैं सोच रहा हूं तसव्वुर भी कितनी अजीब चीज है मुर्दों को जिंदा कर देता है और जिन्दों को मार डालता है.
अगस्त 1947 की बात है जब हिन्दोस्तान आजाद हुआ था. इन दिनों मैं देहली में था, वालिद साहब भी साथ थे. हिन्दोस्तान की तक्सीम के अलमिये ने इंसानियत को बेगुनाह इंसानों के खून से नहा दिया था. मुझे याद आ रहा है वह तनहा ही 1947 में देहली गई थीं और वहां से हमें अपने शहर ले आई थीं.
अक्तूबर में बारिश या तो खत्म हो जाती है या कमजोर पड़ जाती है. लेकिन उस साल दो तीन बारिशें ऐसी हुईं कि जिले की सारी नदियां पानी से भर गईं. तालाब भी आंखें दिखाने लगे थे. अचानक सारा शहर सैलाब की लपेट में आगया था. हमारा बहुत सा सामान देहली में बरबाद हो चुका था जो बचा था उसे सैलाब के पानी ने हड़प कर लिया.....
शाहजहांपुर में जो कुछ गुजरा वह काफी इबरत अंगेज और सबक आमोज था. सारे रिश्तेदारों ने आंखें फेर ली थीं, जिंदगी हम सब के लिए दीवाने का ख्वाब बन गई थी. रूखी सूखी मिलना दुश्वार हो गया था. मुसीबत की इस घड़ी में खान बहादुर फजलुर्रहमान खां काम आये थे. उन्होंने बड़ा सहारा दिया था. काम भी दिलाया था. वक्त गुजरता गया, मेरी हालत कुछ संभल गई थी.
गालिबन 1954 के शबो रोज गुजर रहे थे. इन्हीं दिनों वाल्दा को मेरी शादी का ख्याल आया. चन्द ही महीनों में उन्होंने मेरी शादी जन्नती बानो से कर दी.
अब बारह तेरह साल गुजर चुके थे. शादी के दो साल बाद मेरी पहली लड़की शाहीना बेगम पैदा हुई थी. उसके बाद चार बच्चे और भी पैदा हुए. वाल्दा बहुत खुश थीं, पोते पोतियों में सबसे ज्यादा शाहीना बेगम से प्यार करती थीं. औलादों में सबसे ज्यादा मुझसे मोहब्बत करती थीं.
ठीक इन्हीं दिनों वाल्दा बीमार पड़ गईं. जिगर में खराबी तजवीज की गई, शहर के नामवर तजुर्बेकार डाक्टरों ने इलाज किया मगर फायदा न हुआ. आखिर में वाल्दा को डाक्टर मजहर खां की डिस्पेंसरी ले जाया गया. मैं वाल्दा को तीसरे दिन डाक्टर साहब की डिस्पेंसरी ले जाता था. वालिद साहब भी साथ होते थे. इलाज जारी हुए कई हफते गुजर चुके थे लेकिन फायदा नहीं हो रहा था.
उस दिन नवम्बर की सुबह थी. जर्द सूरज आसमान के सीने पर कपकपा रहा था, मैं मजहर खां की डिस्पेंसरी के बाहर खड़ा था. वाल्दा साहिबा डिस्पेंसरी के अंदर बैठी हुई थीं. अचानक ही डाक्टर साहब डिस्पेंसरी से बाहर आगये थे और बोले थे:
बेटा आपकी वाल्दा को टयूमर हो गया है. उनका आपरेशन होना जरूरी है. कम से कम दस हजार खर्च होंगे. इतना रूपया खर्च करना तुम्हारे लिए नामुमकिन है. बस अल्लाह से दुआ करो वह जल्द सेहतयाब हो जाएं. एक बात और याद रखना- वाल्दा से झूठ बोलना उनसे कहना कि वह बहुत जल्द सेहतयाब हो जाएंगी. लेकिन वह आपरेशन के बगैर अच्छी नहीं होंगी.
मैं कांप कर रह गया था. इसलिए कि झूठ से नफरत करने वाले को झूठ बोलने की तरगीब दी जा रही थी, वह भी अपनी अजीम मां से.
सारी हकीकत समझ में आ गयी थी. कुछ ही देर बाद हम तीनों अपनी रिहाइशगाह वापस आगये थे. वाल्दा साहिबा बिस्तर पर लिटा दी गयीं. वो आज बार बार मुझे देख रही थीं, जैसे मेरे चेहरे पर कुछ पढ़ने की कोशिश कर रही थीं.
वाल्दा साहिबा ने मुझे करीब बुलाया, वो बोलीं-
आज डाक्टर साहब देर तक तुम से बातें करते रहे थे. वो क्या कह रहे थे.
कोई मेरे अंदर चीख पड़ा .....
अब दिखा अपने किरदार की बुलन्दी. बोल सच, तू अपने आप को सच का सूरज कहता रहा है. दिखा अपनी मां को सच की चांदनी जिस पर तू नाज करता रहा है.
मैं अपने अन्दर केतली के पानी की तरह उबलने लगा. मां को धोखा जो देना था. अपने चेहरे पर रियाकारी की सियाही जो पोतना थी.
मेरी आंखों में आंसू आ गये थे. वाल्दा से मैंने कहा था- आप बहुत जल्द अच्छी हो जाएंगी, अब्बूजान आप से सच कह रहे थे.
अपनी बात खत्म करके मैंने उनकी तरफ से गरदन मोड़ ली.क्योंकि उन्की आंखों से अपनी आंखें मिलाने की हिम्मत मुझ में बाकी नहीं रह गयी थी.
मैंने चुपके से आंखों के आंसू खुश्क किये, गरदन मोड़कर वाल्दा को देखा. वो मेरी आंखों में कुछ तलाश करने लगीं, सोच विचार की लकीरें उन्की आंखों में काफी गहरी थीं. अगले ही लम्हे उन्होंने मुझसे पूछा – तुम झूठ तो नहीं कह रहे हो बेटा.
मैंने हिम्मत करके कहा:
मैंने कभी आप से झूठ बोला है क्या.
वाल्दा साहिबा की हालत दिन बदिन बिगड़ती जा रही थी. मैं अन्दर ही अन्दर मोमी शमा की तरह पिघल रहा था.
चांदनी रात हो या अंधेरी, मैं सोते सोते जाग पड़ता, मां के पास जाता, उन्को देखता और तन्हाई में रोता. झूठ बोलने का जानलेवा एहसास मेरी शख्सियत के लिए मुस्तकिल अजाब बना हुआ था. कुछ अरसे बाद उन्की हालत बिगड़ती गई.
अब वो हडि्डयों का खौफनाक ढांचा बन गयी थीं. जिगर, आंतें और मेदा सब बेकार हो गये थे. मुंह में सड़न पैदा हो गयी थी. रोज अन्को गुस्ल दिया जाता लेकिन सड़न दूर न होती.
उस दिन अचानक उन्की हालत खराब हो गयी. हम सब उन्के इर्द गिर्द खड़े हो गये. उन्होंने लरजती हुई आवाज में कहा था.
तुम बड़े लायक बेटे हो. तुम ने मुझ से कहा था मैं बहुत जल्द सेहतयाब हो जाऊंगी. यह था तो झूठ लेकिन सच से कहीं फायदेमंद.......
मैं इसके सहारे काफी अरसे तक जीती रही हूं. हर सुबह सोचती शाम तक संभल जाऊंगी. हर शाम मुझे सुबह के लिए पुर उम्मीद कर देती. लेकिन एक दिन तुम्हारी बहन ने मुझे वह सब कुछ बता दिया जो तुम ने उसे बताया और मुझ से छुपाया था. मुझे यकीन नहीं आया था कि मेरा प्यारा बेटा मुझ से झूठ भी बोल सकता है. अब मुझे मालूम हो गया है कि दस हजार रूपये न होने की वजह से मेरा आपरेशन न हुआ और मैं मौत के मुंह में जा पहुंची.
उन्के यह जुमले मेरे दिल में उतरते चले गये थे. लेकिन मैं चुप चाप खड़ा था. कुछ ही देर बाद उन्की जबान लड़खड़ाने लगी. मैं जैसे फांसी के फंदे में लटका हुआ था. आखिरी लम्हों में उन्होंने रूक रूक कर कहा था.
मेरे बेटा जल्द की अपने खान्दान को इस लायक बना देना कि कोई मरीज दस हजार रूपये न होने कें सबब कब्रिस्तान न पहुंचे, उस का इलाज रूके न आपरेशन, न वो मिट्टी का ढेर बने.
उन्का हाथ कटी हुई शाख की तरह उन्के सीने पर गिर चुका था, वह मिट्टी का ढेर बन चुकी थीं. वक्त ने दस हजार रूपये न होने की सजा मुझे देदी थी. मैं वाल्दा का जनाजा लेकर इसी जगह यहां कब्रिस्तान में आया था.......
(एब्रिज्ड)
Saturday, March 3, 2012
मैं कागज के सिपाही काट कर लश्कर बनाता हूं
न बन्दूकें न तलवारें न अब खंजर बनाता हूं
मैं कागज के सिपाही काट कर लश्कर बनाता हूं
न जाने देगी मेरी कमशनासी मुझको मंजिल तक
कि वो रहजन निकलते हैं जिन्हें रहबर बनाता हूं
कलीसा से न मन्दिर से न मस्जिद से मुझे मतलब
जहां इंसान मिलते हैं वहां मैं घर बनाता हूं
मेरी तकदीर भी रूठी है मुझसे शायद ऐ गौहर
वही बस्ती उजड़ती है जहां मैं घर बनाता हूं
गये मौसमों की कहानी न लिखना
कोर्इ बात खत में पुरानी न लिखना
जो कुचले हैं गुल इस बरस आंधियों ने
कहीं उनकी तुम बे जुबानी न लिखना
सहर खौफ आलूद शब जख्म खुर्दा
तुम इन साअतों को सुहानी न लिखना
कहां तक भला इनहिराफे हकीकत
सितम को भी गम की निशानी न लिखना
जमीं छोड़कर जो खलाओं में गुम हैं
इसे उन की तुम कामरानी न लिखना
मेरी चश्मे तर में सजे हैं जो आंसू
ये आर्इने हैं इनको पानी न लिखना
कलमकार हो तुम यह तसलीम गौहर
किसी का मगर खुद को सानी न लिखना
Sunday, December 4, 2011
दुखियारे सहते जाते और चोट चोटों पर
डाक्टर जी ए कादरी, अध्यक्ष फ़ारसी विभाग जी एफ़ कालेज ने हिन्दी में अमरबेल नाम के नाटक की रचना और उसका सम्पादन किया है. डाक्टर जी ए कादरी केवल साहित्यकार ही नहीं, इसके साथ एक अच्छे रंग कर्मी भी हैं.
ऊंचे महल बनाये
ईशवर की माया ही कहलो
यहां धूप वहां साये
रूपों के बाज़ार सजे हैं
महलों के कोठों पर
पर दुखियारे सहते जाते
और चोट चोटों पर
रुन झुन कॊ आवाज महल से
बाहर तक आ जाती
पर आंसू की धार यहां
झोपडियों तक रह जाती
Email: gaquadrigfc@gmail.com
डाक्टर कादरी की दूसरी किताब डाक्टर ए अजीज अंकुर की काव्य रचनाओं का संकलन है.
उनकी शायरी के कुछ अंश देखिए:
ऊंचे महल बनाये
ईशवर की माया ही कहलो
यहां धूप वहां साये
रूपों के बाज़ार सजे हैं
महलों के कोठों पर
पर दुखियारे सहते जाते
और चोट चोटों पर
रुन झुन कॊ आवाज महल से
बाहर तक आ जाती
पर आंसू की धार यहां
झोपडियों तक रह जाती
Subscribe to:
Posts (Atom)