लाल किले के दीवाने आम में रात का सन्नाटा छाया हुआ था। पहरेदार सब सो चुके थे।
अगहन मास की चांदनी पेड़ों से छन छनकर आ रही थी। दिल्ली शहर सो रहा था। लेकिन लाल
किले के दीवाने आम में आज कुछ हलचल थी। वहां एक भीड़ सी जमा थी। लेकिन सब खामोश थे।
अपने अपने लबादों में लिपटे लिपटाये बैठे थे, और इस इन्तिजार में थे देखें क्या
हुक्म होता है। आज की महफिल दमदम जानी ने सजायी थी। बड़ी मिन्न्त की थी तब यह सारे
लोग इकट्ठा हुए थे।
इस किले को मुगल बादशाह शाहजहां ने दिल्ली में जमना के किनारे बनवाया था। शाहजहां
को इमारतें बनवाने का बड़ा शौक था। दो इमारतों के लिए उसने जमना का किनारा पसंद
किया था। एक ताजमहल और दूसरा लाल किला। शाहजहां ने राजधानी आगरा से दिल्ली तब्दील
की थी। अकबर के जमाने तक राजधानी आगरा रही क्योंकि अप्रैल 1526 में इब्राहीम लोदी
को हराने वाले जहीरुद्दीन बाबर ने आगरा पर अधिकार किया था। उसकी हुकूमत आगरा से
चलती रही।
मुगलों के शासन से पहले कुतबुद्दीन एबक ने दिल्ली को राजधानी करार दिया था। उसने
दिल्ली की महत्ता को समझ लिया था। दिल्ली से लाहौर से लेकर गजनी और समरकन्द, तक
नजर रखी जा सकती थी और दूसरी तरफ राजपूताना से कश्मीर तक। कुतबुद्दीन एबक को लाहौर
बहुत पसंद था और उसका शासन दिल्ली और लाहौर से चलता रहा। लाहौर में ही 1210 ई में पोलो खेलते हुए घोड़े से गिरकर कुतबुद्दीन एबक की
मृत्यु हो गयी थी।
उसकी दूरदर्शी निगाहों ने समझ लिया था कि इस देश के लिए अगर कोई बेहतर राजधानी
हो सकती है वह दिल्ली ही हो सकती है। दिल्ली सल्तनत ने पहली बार केन्द्रीय शासन के
महत्व को समझा। उसने इस देश के लिए एक केन्द्रीय शासन स्थापित किया। इससे पहले यहां
राज करने वाले राजाओं, महाराजाओं की अपनी सीमाएं थीं। सत्ता का
केन्द्र कोई नहीं था। इन राजाओं में सत्ता के लिए सीमाओं पर संघर्ष होता रहता था। दिल्ली
जब शासन का केन्द्र बना और दिल्ली सल्तनत परवान चढ़ने लगी तो शायर, लेखक, सूफी, फकीर, कारीगर चारों ओर से सिमटकर दिल्ली में
इकट्ठा हो गये। इमारतें बनायी जाने लगीं, सूफी परम्परा आगे बढ़ी, शायरी की जाने लगी और इतिहास को संजोया जाने लगा।
शाहजहां ने भी दिल्ली के महत्व को समझा। उसने ताजमहल के रूप में एक निशानी
आगरा में छोड़ी और लाल किले की एक यादगार दिल्ली में स्थापित की। बाद में अंग्रेजी
हुकूमत भी दिल्ली से ही चलती रही। उन्होंने जमाने की जरूरत को देखते हुए पुरानी
दिल्ली की तंग गलियों को छोड़कर दिल्ली में ही शासन का नया केंद्र नयी दिल्ली बनाया।
आज की रात कुछ पुराने, कुछ नये अदीब और शायर, दिल्ली के पुराने वासी इकट्ठा हुए थे। तय हुआ था कि वर्षों बीत गये, कोई अदबी महफिल नहीं जमीं। जमाने ने बहुत
करवटें बदली, जमना में बहुत पानी बह गया। वह आवाज़ें
जिनको सुनने को कान तरस गये आज फिर से गूंजेंगी। मुशायरा होगा और खूब होगा। लेकिन
तरीका वही पुराना होगा। सब शायर और सुनने वाले चुपचाप बैठेंगे, कोई दाद का शोर और वाह वाह का हंगामा नहीं होगा। जिसके सामने शमा लायी जायेगी
वही कलाम पढ़ेगा।
इस मुशायरे का न कोई सदर होगा न कोई संचालक। किसी की शान में कसीदा नहीं पढ़ा
जायेगा। बस जिसके सामने शमा रख दी जाए वह कलाम सुनाना शुरू कर दे।
शमा जलाने, शमा बुझाने और उसे हर एक शायर के सामने रखने का जिम्मा दमदम जानी ने अपने सर
लिया। वह शायरी के शौकीन थे। दरीबा कलां में हलवा बेचा करते थे। दिन में हलवा
बेचते, मीठी बातें करते और रात को मुशायरों में
शिरकत करते। अपने घर पर भी मुशायरे कराते थे। उन्हें बहुत से शायरों का कलाम जबानी
याद था। थोड़ी बहुत शायरी भी करते थें। जब वह शेर पढ़ते लोग समझते कि यह उन्हीं का
शेर है। यह सुनने वाले पर था कि वह शेर पर सर धुने या वाह वाह करे। उनका काम था
शेर पढ़ना और अलग हो जाना।
दमदम जानी ने शमा रोशन की। एक शायर जो फरग़ल में लिपटे हुए उंची टोपी लगाए बैठे
थे उनके सामने रख दी। शमा तेज़ लौ से जल रही थी और उसकी लौ से धुआं सा उठ रहा था.
वह शायर यूं गोया हुएः
बूए गुल, नाला-ए दिल, दूदे चराग़े महफिल
जो तेरी बज्म से निकला सो परेशां निकला
लोग देखने लगे कि यह शायर कौन हैं। तभी उन्होंने पढ़ाः
वह पूछते हैं कि ग़ालिब कौन है
कोई बतलाओ कि हम बतलाएं क्या
अच्छा तो यह मिर्ज़ा नौशा हैं। पहले असद तख़ल्लुस करते थे। अब ग़ालिब नाम रखा है।
एक बूढ़े शायर ने कहा.
पास में बैठा शख्स बोला - मियां लोग कहते हैं कि इनका कहा यह खुद समझें या
खुदा समझे.
या शब को देखते थे कि हर गोशा-ए बिसात
दामाने बागबानो कफे गुलफरोश है
गमे हस्ती का असद किससे हो जुज मर्ग इलाज
शमा हर रंग में जलती है सहर होते तक
शमा आगे बढ़ाई गयी। एक बूढ़े शायर थे। बड़ा सा चेहरा, घनी दाढ़ी जो सफ़ेद हो चुकी थी। बड़ा घेरदार पायजामा, लम्बा कुरता, उस पर अचकन, और कमर पर कई गज़ रेशमी कपड़े का पटका बंधा हुआ। लोग देखने लगे कि ये कौन हैं:
उनहोंने अपना कलाम पढ़ना शुरू किया:
दिल्ली के जो कूचे थे
औराक़-ए मुसव्विर थे
जो चीज़ नज़र आयी
तस्वीर नज़र आयी
शायद कि बहार आयी
ज़ंजीर नज़र आयी
लोग कहने लगे इस शायर को को दिल्ली से बहुत प्यार है। ये वही शायर मीर तक़ी मीर
हैं। इनके बारे में ही ग़ालिब ने कहा है:
रेख्ता के तुम्हीं उस्ताद नहीं
हो ग़ालिब
अगले ज़माने में कोई मीर भी था
मीर ने ग़ज़ल की जो बुनियाद डाली उसे रेख़्ता कहा गया। इस भाषा में बिखराव था, फैलाव था, इसे बहुत से लोग समझ सकते थे। ये आसान थी, इसमें
उल्झाव नहीं था। मीर का ये तर्ज़ बहुत पसंद किया गया.
मीर ने आगे पढा:
क्या बूद-ओ-बाश पूछो हो पूरब के साकिनो
हमको ग़रीब जान के हंस-हंस पुकार के
दिल्ली जो एक शहर था आलम में इंतिखाब
रह्ते थे जहां मुंतखिब ही रोज़गार के
उसको फ्लक ने लूटके वीरान कर दिया
हम रहने वाले हैं उसी उजड़े दयार के
मीर ने इश्क की चोट दिल पर खायी थी। उन्होंने ऐसा इश्क़ किया कि होश-ओ-हवास
जाते रहे। चांद की तरफ देखते तो चांद में महबूब का चेहरा नज़र आता:
मीर क्या सादे हैं बीमार हुए जिसके सबब
उसी अत्तार के लौंडे से दवा लेते हैं
ये शेर सुनते ही बहादुर शाह ज़फर के मुंह से एक आह निकली। वाह मीर साहब ! क्या
नश्तर मारा है,
सीधा जिगर के पार हो गया.
मीर अपनी धुन में आगे गोया हुए:
मीर इन नीमबाज़ आंखों में
सारी मस्ती शराब की सी है
नाज़ुकी उसके लब की क्या कहिये
पंखडी एक गुलाब की सी है
माहौल पर रंग चढने लगा था। जामे-मय के रसिया कसमसाने लगे थे। बेहतरीन शाराब
पुर्तगाल से आती थी। लोग बोतलें खरीद कर फलों की टोकरी में ऊपर नीचे घास फूस डालकर
मज़दूर के सर पर रखवा देते। और उसे हिदयत देते: मियां ज़रा आहिस्ता, ये नाज़ुक शीशा-ए-दिल है, ज़रा ठेस लगी और फूटा।
दिल्ली कई बार उजड़ी और वीरान हुई। कभी तैमूरी आंधी आयी, कभी फतेहपुरी मस्जिद
में तलवार निकालकर नादिर शाह दुर्रानी ने ‘बि-ज़न’ बोला और दिल्ली खून में नहा गयी।
कभी राजधानी दिल्ली से दौलताबाद ले जायी गयी तो दिल्ली में कुत्ते और कव्वे तक भाग
गये। ऐसे ही एक दौर में जब कोई काम धंधा नहीं था मीर जैसे शायर ने दिल्ली छोड़कर
लखनऊ का रास्ता लिया। लेकिन एक शायर ने दिल्ली को नहीं छोड़ा। वह अपने कूचे में
चटाई पर मजबूती से बैठा रहा और जमाने के सर्द-ओ-गर्म बर्दाश्त करता रहा। ये थे
ख्वाजा मीर दर्द।
किले के मुशायरे में ख्वाजा मीर दर्द सुकड़े सिमटे से बैठे थे। सूफी और दरवेश
मिजाज रखते थे। सीधे और साफ शेर कहते थे। न उनके शेरों में उलझाव था और न फारसी,
अरबी के शब्दों की कारीगरी। शमा उनके सामने राखी गयी तो उन्होंने पढ़ना शुरू किया:
जग में आकार इधर उधर
देखा
तू ही आया नजर जिधर देखा
जान से हो गये बदन खाली
जिस तरफ तूने आंख भर
देखा
उन लबों ने न की मसीहाई
हमने सौ सौ तरह से मर
देखा
ज़िंदगी है या कोई तूफान
है
हम तो इस जीने के हाथों
मर चले
दर्द कुछ मालूम है ये
लोग सब
किस तरफ से आये थे किधर
चले?
दर्द के मिलने से ऐ यार
बुरा क्यों माने
उसको कुछ और सिवा दीद के
मंजूर न था
मीर दर्द साहब जब शेर पढ़ चुके तो दमदम जानी ने शमा उठाई और
सीधे जाकर बादशाह के उस्ताद शेख इब्राहीम ज़ौक़ के सामने रख दी।
बादल के टुकड़े चांद से आंख मिचोली खेल रहे थे। चांदनी कभी
हल्की पड़ जाती, कभी तेज़ हो जाती। हवा में
ठंडक थी। पेड़ ओस में भीग चुके थे।
शेख इब्राहीम ज़ौक़ मंझे हुए शायर थे। ज़िंदगी शायरी की गलियों
में खाक छानते गुज़ारी थी। उसकी खामियां और बारीकियां खूब समझते थे। एक दिन बादशाह
की ग़ज़ल देख रहे थे कि बादशाह ने कहा:
उस्ताद आज हमारी ग़ज़ल देख रहे हो, कल जब हम न होंगे तो दूसरों की ग़ज़ल देखा करोगे?
ज़ौक़ ने बादशाह की तरफ देखा, उसकी
आंखों में दुःख की परछाइयां थीं। आने वाले समय का एहसास हो चूका था। ज़ौक़ बादशाह की
इस बात से सन्न रह गये। शरीर में कम्पन सा होने लगा। उनहोंने खुद को संभाला और
कहा:
हुज़ूर खेमा जब गिरता है तो तनाबें और रस्सियां पहले ही उखड जाती हैं।
ज़ौक़ का यह कथन बिलकुल सही साबित हुआ। 1857 से पहले ही ज़ौक़ चल बसे.
ज़ौक़ ने पढ़ना शुरू किया:
ज़ाहिद शराब पीने से काफिर
हुआ मैं क्यों
क्या डेढ़ चुल्लू पानी में
ईमान बह गया
हम आप जल बुझे मगर इस दिल की
आग को
सीने में हमने ज़ौक़ न पाया
बुझा हुआ
बनाया इसलिए खाक के पुतले को
था इन्सां
कि इसको दर्द का पुतला बनाये
सर से पांव तक
सरापा पाक हैं धोए जिन्होंने
हाथ दुनिया से
नहीं हाजत कि वो पानी बहाएं सर से पांव तक
सब ख़ामोशी से सुन रहे थे। ज़ौक़ ने आगे पढ़ा:
वक़्त-ए पीरी शबाब की बातें
ऐसी हैं जैसी ख्वाब की बातें
फिर मुझे ले चला उधर देखो
दिल-ए खाना-खराब की बातें
महजबीं याद हैं कि भूल गये
वह शबे माहताब की बातें
उसके बाद शमा बादशाह के सामने लायी गयी। बादशाह की उम्र 80
से ऊपर हो चुकी थी। वह देर रात तक कहां बैठे रहेंगे। मुशायरा तो चलता रहेगा। बादशाह
के दरबारी और हाजिब सब सो चुके थे। पहरेदार ऊंघ रहे थे। रात गहराती जा रही थी। किले
में सन्नाटा छाया हुआ था। पेड़ खामोश खड़े थे। उनकी शाखाओं से छन छन कर आने वाली चांदनी
जमीन पर दायरे, धब्बे बना रही थी। बहादुरशाह की हुकूमत सिर्फ किले के अंदर रह गयी
थी। अंग्रेजी हुकूमत ने पुरानी बादशाही का सम्मान करते हुए उनका वजीफा एक लाख
रुपये मुकर्रर किया था। आगे कौन उत्तराधिकारी बनेगा यह भी पता नहीं था। अंग्रेज
हुकूमत अब किसी को उत्तराधिकारी नहीं बनाना चाहती थी।
बहादुरशाह
ने शेर पढ़ा:
कितना बेकरार है ज़फ़र दफन के
लिए
दो गज ज़मीं न मिली कुए यार
में
मुशायरे में सन्नाटा छ गया। 1857 में दिल्ली बर्बाद हो गयी।
मेरठ छावनी से वह सिपाही लाल किले के झरोखे के नीचे क्या आए, एक तूफान लेकर आए। सुबह
का समय था, बादशाह जमना की तरफ झरोखा दर्शन देते थे कि अचानक:
दुहाई है, दुहाई है, बादशाह सलामत हम आपकी शरण में आए हैं,
हमे इस गुलामी से बचाओ।
किले में आग की तरह ये खबर फाइल गयी कि झरोखे के नीचे
अंग्रेजी सेना के सिपाही दुहाई दे रहे हैं।
बादशाह ने दूसरा शेर पढ़ा:
न किसी की आंख का नूर हूं, न
किसी के दिल का करार हूं
जो किसी के काम न आ सके वह एक मुश्त गुबार हूंमेरठ छावनी से भागे देसी सिपाहियों को इस देश को आजाद करने के लिए जो शख्स नजार आया वह बहादुरशाह ज़फ़र था। लेकिन उसकी हुकूमत सीमित थी और साधनों पर पहरा था।
इस बादशाह ने कमान संभाली, और खूब संभाली। शाही फरमान जारी
होने लगे, किले में सभी सरकारी विभाग, जो बरसों से बंद पड़े थे, काम करने लगे। किंग
सेक्रेटेरिएट काम करने लगा। हरकारे दौड़ने लगे, गोला बारूद बनाया जाने लगा। अंग्रेजी
हुकूमत सकते में आ गयी थी।
बादशाह
ने एक और शेर पढ़ा:
पसे मर्ग मेरे मज़ार पर जो दिया किसी ने जला दिया
उसे आह दामने बाद ने सरे शाम
से ही बुझा दिया
तभी तेज हवा चली, शमा भड़ककर बुझ गयी। अब सिर्फ पेड़ों से
छनकर आ रही चांदनी थी, और शायरों की परछाईयां.
चांद से बादल के टुकड़े आंख मिचौली खेल रहे थे। चांदनी कभी
धीमी पड़ जाती कभी तेज हो जाती। हवा में ठंडक थी। दमदम जानी ने बुझी हुयी शमा
उठायी, उसे फिर से रोशन किया और हवा से बचाते हुए मोमिन खान मोमिन के सामने रख
दिया।
मोमिन हकीम भी थे और शायर भी। गजलें अलग रंग में कहते थे। मोमिन
ने अपना कलाम पढ़ा।
वह जो हम में तुम में चाह थी, वह हमको तुमसे जो राह थी तुम्हें याद हो कि न याद हो
उसके बाद शमा जिसके सामने रखी गयी वह सफेद दाढ़ी वाले दुबले पतले शायर थे। पानीपत के रहने वाले थे। शायरी का ऐसा चस्का लगा और गालिब का नाम सुना तो घर से भाग कर दिल्ली आ गये और गालिब के शागिर्द हो गये। उन्होंने दिल्ली की बर्बादी अपनी आंखों से देखी थी। दिल्ली का घिराव कर जब अंग्रेजी हुकूमत ने 1857 की क्रांति को कुचला तो दिल्ली में बहुत कुछ बदल गया था।
लाल किले से लगे मोहल्ले खुदवाकर जमीन के
बराबर कर दिए गये। इन मोहल्लों में दिल्ली के कारीगर बसते थे। हजारों की तादाद में
इमारते बनाने वाले, तलवारें, भाले और खंजर बनाने वाले, पत्थर तराशने वाले और तरह
तरह के दस्तकार। ये मोहल्ले छोटे कारखाने थे जिनसे बादशाह को जरूरत का सामान मिल
जाता था।
गालिब के ये शागिर्द ख्वाजा हाली थे जो
उर्दू शायरी में नये आयाम खोज रहे थे। गुलो- बुलबुल की शायरी पुरानी हुई अब नयी
तालिम का ज़माना है। शायरी भी नयी हो और लोगों के लिए मुफीद हो ऐसा हाली का ख्याल
था।
वह दिल्ली जो हाली ने देखी थी और वह दिल्ली
जो अब उनके सामने थी, में जमीनो- आसमान का फर्क था। दिल्ली के कैसे काबिल लोग इस
तूफान की भेंट चढ़ गये। कैसी आलीशान और एतिहासिक इमारतें खंडर बना दी गयीं। वह
दिल्ली को एक ऐसा कब्रिस्तान समझते थे जिसमें बहुत खजाना दफन है। दिल्ली घूमने की
इच्छा रखने वाले को वह इस तरह चेताते हैं:
तजकरा दिल्ली मरहूम का ऐ दोस्त न छेड़
सुना जाएगा हमसे न ये फ़साना हरगिज
दाग सीने पे लेके आएगा बहुत ऐ सैयाह
देख इस शहर के खंडहरों में न जाना
हरगिज
चप्पे चप्पे पे हैं यहां गौहर-ए यकता तहे खाक
दफन होगा कहीं इतना न खजाना हरगिज
पौ फटने वाली थी। शमा भी रात भर रोते रोते अब खामोश होने को थी। एक पुराने से शायर उठे और कहा अगला मुशायरा पूर्णिमा की रात में होगा जब पूरे चांद की चांदनी खिली होगी। दमदम जानी ने शमा गुल की। शायरों ने अपना अपना रास्ता पकड़ा। पहरेदार सब जाग गए थे। अब वहां पर सूखी हुई पत्तियां थीं, जो हवा से इधर उधर उड़ रही थीं, बुझी हुई शमा थी, और शमा पर मर मिटने वाले परवानों के पंख इधर उधर बिखरे हुए थे।
दाग-ए फिराक-ए सोहबत-ए शब की
जली हुई
एक शमा रह गयी है सो वो भी
खमोश है
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