न बन्दूकें न तलवारें न अब खंजर बनाता हूं
मैं कागज के सिपाही काट कर लश्कर बनाता हूं
न जाने देगी मेरी कमशनासी मुझको मंजिल तक
कि वो रहजन निकलते हैं जिन्हें रहबर बनाता हूं
कलीसा से न मन्दिर से न मस्जिद से मुझे मतलब
जहां इंसान मिलते हैं वहां मैं घर बनाता हूं
मेरी तकदीर भी रूठी है मुझसे शायद ऐ गौहर
वही बस्ती उजड़ती है जहां मैं घर बनाता हूं
गये मौसमों की कहानी न लिखना
कोर्इ बात खत में पुरानी न लिखना
जो कुचले हैं गुल इस बरस आंधियों ने
कहीं उनकी तुम बे जुबानी न लिखना
सहर खौफ आलूद शब जख्म खुर्दा
तुम इन साअतों को सुहानी न लिखना
कहां तक भला इनहिराफे हकीकत
सितम को भी गम की निशानी न लिखना
जमीं छोड़कर जो खलाओं में गुम हैं
इसे उन की तुम कामरानी न लिखना
मेरी चश्मे तर में सजे हैं जो आंसू
ये आर्इने हैं इनको पानी न लिखना
कलमकार हो तुम यह तसलीम गौहर
किसी का मगर खुद को सानी न लिखना
No comments:
Post a Comment