नज़ीर अकबर आबादी अवाम का शायर है. उसका ज़माना 1735 से 1830 ई. है. अट्ठारवीं शताब्दी में जो सियासी उथल पुथल जारी धी नज़ीर ने उसे अपनी शायरी के ज़रीये पेश किया है. उसके शेर आज भी प्रासांगिक हैं.
नहीं है जोर जिन्हों में वो कुशती लड़ते हैं
जो ज़ोर वाले हैं वो आप से पिछडते हैं
झपट के अंधे बटेरों के तईं पकड़ते हैं
निकले छातियां कुबड़े भी सब अकड़ते हैं
गरज़ मैं क्या कहूं दुनिया भी एक तमाशा है.
बनाके नयारिया ज़र की दुकान बैठा है
जो हुन्डीवाल था वो खाक छान बैठा है
जो चोर था सो वो हो पासबान हैठा है
ज़मीन फिरती है और आसमान बैठा है
गरज़ मैं क्या कहूं दुनिया भी एक तमाशा है.
ज़बां है जिसके, इशारे से वो पुकारे है
जो गूंगा है वो खड़ा फारसी बघारे है
कुलाह हंस की कौवा खड़ा उतारे है
उछल के मेंडकी हाथी के लात मारे है
गरज़ मैं क्या कहूं दुनिया भी एक तमाशा है.
अज़ीज़ जो थे हुए चश्म में सभों की हकीर
हकीर थे सो हुए हैं सब में साहिबे तौकीर
अजब तरह की हवाएं हैं और अजब तासीर
अचंभे खल्क के क्या क्या करूं बयां मैं नज़ीर
गरज़ मैं क्या कहूं दुनिया भी एक तमाशा है.
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